कविता

पहली बार जाना है

आज मैंने आज को पहली बार जाना है
बरसों बाद ख़ुद को ठीक से पहचाना है
सदियाँ गुज़र गईं इस कश्मकश में कि
ये मुझमे मैं ही हूँ या कोई और बेगाना है
कितना खूब लगता है मासूम सा ये इंसान
ख़ुद में ख़ुद को झांका तब ये आज माना है
देखा ख़ुद को बरसों दुनिया की नज़रों से
अब ख़ुद को इस दुनिया से रूबरू करवाना है
तुम दिन कहो तो दिन जो रात कहो तो रात
तुम्हारे इस नज़रिये से ख़ुद को छुड़ाना है
तुम देख रहे हो मुझमे जो मासूम सा ये चेहरा
इसमे आग है सूरज की ये तुम्हे बताना है
नाज़ुक सा एक दिल रहता है मुझमें
ये भरम है तुम्हारा जिसे आज मिटाना है
हँसके सह लेना तुम्हारे सारे ज़ख्म ये इज़्ज़त है तुम्हारी
मेरी कमज़ोरी नहीं मेरे इस नज़रिये से आज तुमको मिलवाना है
आसमां का वजूद तबतक है मुकम्मल
धरती ने जब तक उसको असमान माना है
बाढ़ हो या आये तूफ़ान आसमां का क्या बिगड़ता है
सहना तो बस बेचारी धरती को पड़ता है
कौन है कमज़ोर कौन है मज़बूत
इस सच्चाई से आज दुनिया को मिलना है क्यूंकि…
आज मैंने आज को पहली बार जाना है
बरसों बाद ख़ुद को इतना पहचाना है।
— रजनी त्रिपाठी

रजनी त्रिपाठी

रजनी त्रिपाठी पति श्री राजीव त्रिपाठी हिंदी से स्नातक , प्राथमिक शिक्षा अध्यापिका रुचि : पठन, पाठन, लेखन, जन्मस्थान नई दिल्ली वर्तमान निवास स्थान मुंबई