बाग़ में इक भी शजर बाक़ी कहाँ
छाया,गुल, बर्गो समर बाक़ी कहाँ
इनमें अहसास ए ज़रर बाक़ी कहाँ
बाप का बच्चों में डर बाक़ी कहाँ
सारे इंसां बन के बैठे हैं ख़ुदा
दुनिया में कोई बशर बाक़ी कहाँ
कौन सोचे अच्छे कर्मों के लिए
अब दुआओं में असर बाक़ी कहाँ
क़ीमती सामान ने घेरी जगह
अब मकानों में है घर बाक़ी कहाँ
ज़हन ने दिल से बग़ावत जब से की
कांधों पे ख़ुद का है सर बाक़ी कहाँ
ज़िंदगी! थोड़ी सी हिम्मत और कर
अब ज़्यादा है सफ़र बाक़ी कहाँ
— अजय अज्ञात