धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सृष्टि के वास्तुकार भगवान विश्वकर्मा

शिल्प, वास्तुकला, चित्रकला, काष्ठकला, मूर्तिकला और न जाने कितनी कलाओं के जनक भगवान विश्वकर्मा को देवताओं का आर्किटेक्ट व देवशिल्पी कहा जाता है। हम उन्हें दुनिया के प्रथम आर्किटेक्ट और इंजीनियर भी कह सकते हैं। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार देवताओं के लिए भवनों, महलों, रथों व बहुमूल्य आभूषण इत्यादि का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ही करते थे। भगवान विश्वकर्मा के जन्म को लेकर स्कंद पुराण के प्रभात खण्ड में एक श्लोक मिलता है – बृहस्पते भंगिनी भुवना ब्रह्यवादिनी। प्रभासस्य तस्य भायां बसूनामष्टमस्य च। विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पक तां प्रजापतिः। अर्थात् महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्याविद्या जानने वाली थी, वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभ की पत्नी बनी और उनसे संपूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। पुराणों में कहीं योगसिद्धा, वरस्त्री नाम भी बृहस्पति की बहन का लिखा है। वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार सोने की लंका का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने किया था। पूर्वकाल में माल्यवान, सुमाली और माली नाम के तीन पराक्रमी राक्षस थे। वे एक बार विश्वकर्मा के पास गए और कहा कि आप हमारे लिए एक विशाल व भव्य निवास स्थान का निर्माण कीजिए। तब विश्वकर्मा ने उन्हें बताया कि दक्षिण समुद्र के तट पर त्रिकूट नामक एक पर्वत है, वहां इंद्र की आज्ञा से मैंने स्वर्ण निर्मित लंका का निर्माण किया है। तुम वहां जाकर रहो। इस प्रकार लंका में राक्षसों का आधिपत्य हो गया। जबकि कहीं धर्म ग्रंथों में वर्णन है की विश्वकर्मा ने सोने की लंका निर्मित करके नलकुबेर को दी थी जो कि रावण का सौतेला भाई था।

विश्वकर्मा के कहने पर ही नल कुबेर ने सोने की लंका बाद में रावण को सौंप दी थी। वहीं दूसरा प्रसंग रामसेतु निर्माण के संदर्भ में आता है। रामसेतु का निर्माण मूल रुप से नल नाम के वानर ने किया था। नल शिल्पकला जानता था क्योंकि वह देवताओ के शिल्पी विश्वकर्मा का पुत्र था। अपनी इसी अद्भुत कला से उसने समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था। इधर, महाभारत के अनुसार तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली के नगरों का विध्वंस करने के लिए भगवान महादेव जिस रथ पर सवार हुए थे, उस रथ का निर्माण विश्वकर्मा ने ही किया था। वह रथ सोने का था। उसके दाहिने चक्र में सूर्य और बाएं चक्र में चन्द्रमा विराजमान थे। दाहिने चक्र में बारह आरे तथा बाएं चक्र में सोलह आरे लगे थे। तो वहीं श्री कृष्ण की द्वारिका नगरी के निर्माण की नींव भी भगवान विश्वकर्मा ने ही रखी थी। उपयुक्त समस्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है भगवान विश्वकर्मा श्रम, साधना, तप-तपस्या, सृजन व निर्माण के अधिष्ठाता है। जिन्होंने मेहनत को मीत बनाकर जीवन उपयोगी यंत्रों का सृजन कर अपनी कुशलता का समग्र परिचय दिया। आज भगवान विश्वकर्मा मेहनत और श्रम को साथी मानते हुए कर्म में आस्था रखकर आगे बढ़ने वाले उन समस्त लोगों के लिए आदर्श व प्रेरणापुंज है। इन्हें सब कारणोें से हमारे देश सहित विदेशों में भी भगवान विश्वकर्मा के कार्यों का पुनः उल्लेख करके अपने कार्य के प्रति नवचेतना के भाव को जागृत करने के उद्देश्य से विश्वकर्मा जयंती को मनाया जाता है। जिसमें भगवान विश्वकर्मा की पूजा-अर्चना कर मिठाई व फलों का भोग लगाकर उनके समक्ष मंगल कामना व इच्छापूर्ति का वरदान मांगा जाता है। तत्पश्चात शहर के मुख्य मार्गो से रथ पर संजी भगवान विश्वकर्मा की झांकी निकाली जाती है। रात्रि को भजन संध्या व धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। जनमानस में उस समय उत्साह और उमंग अपने उफान पर होते हैं। इस तरह बड़े ही धूमधाम से भगवान विश्वकर्मा जयंती पर्व को मनाया जाता है। भगवान विश्वकर्मा किसी जाति या धर्म विशेष के देवता न होकर संपूर्ण कर्मशील समाज के मार्गकर्ता है। अतः हर किसी को अपने कर्म साधना के कुरुक्षेत्र में अंत समय तक डटकर लड़ने के लिए भगवान विश्वकर्मा की आराधना करनी चाहिए।

देवेन्द्रराज सुथार

देवेन्द्रराज सुथार , अध्ययन -कला संकाय में द्वितीय वर्ष, रचनाएं - विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। पिन कोड - 343025 मोबाईल नंबर - 8101777196 ईमेल - devendrakavi1@gmail.com