कविता

आखिर क्यों??

बहन, मां, बेटी हो तुम,
पत्नी और प्रेयसी हो तुम।
तुम ही गीता ,रामायण हो,
तुम ही सृष्टि की तारण हो।
कितने किरदारों में ढलती हो?
फिर क्यों अबला बन फिरती हो

तुम सुमन किसी फुलवारी की,
तुम जननी किसी किलकारी की।
आंचल में ममता की धार है,
चुनौतियां भी सभी स्वीकार हैं।
फिर क्यों रोज सिसकती हो?
“नाजुक हूं मैं “,यह कहती हो।

खुशियों का संसार हो तुम,
जीवन का आधार हो तुम।
त्योहारों की शान हो तुम,
संस्कारों की खान हो तुम।
कमजोर क्यों खुद को समझती हो?
दर्द के सांचे में ढलती हो।

तुम ही दीपक तुम ही ज्योति हो,
तुम ही सीप, तुम ही मोती हो।
प्रेम पीयूष की सरिता हो तुम,
तुम ही बलिदानों की गाथा हो।
खुद के सम्मान से क्यों डरती हो?
अपना अपमान खुद करती हो।

अपने मान का मान करो,
तुम खुद सक्षम हो स्वीकार करो।
आखिर क्यों सब चुप रहकर सब सहती हो?
अपने अस्तित्व का कुछ भान करो,
दुनिया की नई पहचान बनो।
— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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