गीत/नवगीत

चार दिन की जिन्दगी है

हर दिन जिन्दगी तेरा एक पत्ता टूट रहा।
तेरे संग चलकर एक एक दिन छूट रहा।।

काँटे ही बिछे हैं क्या तेरी राहों  में ,
कितने पहाड़ छुपे हैं तेरी पनाहों में।
कहीं तू झील है, कहीं तू सागर के जैसी-
कोई पार करता है, कोई यहाँ पर ढूब रहा।
हर दिन जिन्दगी…………..एक दिन छूट रहा।।

कई मंजिलो से होकर तू गुजरती गयी।
सांसों की माला से मोती बिखरती गयी।
तुझे परवाह नही कोई, तू चलती ही जा रही
अब तो ठहर जा कहीं, हर पल तुझसे रूठ रह।
हर दिन जिन्दगी…………..एक दिन छूट रहा।।

सावन में भी जल रही, कैसी ये तेरी आग है।
सूरज को देखते ही मचाती तू भागम भाग है।
पॉवों के छालों पर तुझको क्यों तरस आता नही।
कब तक तू दौडायेगी, हर कोई तुझको लूट रहा।
हर दिन जिन्दगी………………….एक दिन छूट रहा।।

चार दिन की जिन्दगी है, मानती तू क्यों  नही।
क्या (राज) है इस जगह पर, जानती तू क्यों नही।
पलकों में सावन पल रहे, मुड़ के कभी तो देख ले
चेहरे की झुर्रियाँ तो पढ़, दम मेरा अब टूट रहा।
हर दिन जिन्दगी…………………...एक दिन छूट रहा।।

— राज कुमार तिवारी (राज)

राज कुमार तिवारी 'राज'

हिंदी से स्नातक एवं शिक्षा शास्त्र से परास्नातक , कविता एवं लेख लिखने का शौख, लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र से लेकर कई पत्रिकाओं में स्थान प्राप्त कर तथा दूरदर्शन केंद्र लखनऊ से प्रकाशित पुस्तक दृष्टि सृष्टि में स्थान प्राप्त किया और अमर उजाला काव्य में भी सैकड़ों रचनाये पब्लिश की गयीं वर्तामन समय में जय विजय मासिक पत्रिका में सक्रियता के साथ साथ पंचायतीराज विभाग में कंप्यूटर आपरेटर के पदीय दायित्वों का निर्वहन किया जा रहा है निवास जनपद बाराबंकी उत्तर प्रदेश पिन २२५४१३ संपर्क सूत्र - 9984172782