कविता

तेरी यादें

कैसी उलझन कैसी अपनी मोहमाया है।
कितने दर्द द्वार खड़े हो कर पाया है।
सारे आंसू दृग को धो कर बोल चुके।
धीरे धीरे दुःख को जैसे घोल चुके।
अंतर्मन ये क्या चाहता पूंछू कैसे।
मन की अनुभूति को फिर छूं कैसे।
कैसे अपने, कैसे दुनिया भूल गया।
खुद से खुद का नाता कब का छूट गया।
कब तक तुम बाकी मुझमें, बोलो प्रिये।
जब सारे फाटक जाने के थे खोल दिए।
खिड़की से अब भी उम्मीदें झांक रही।
जाने कौन आस में रास्ता तेरा तांक रही।
मेरी अनुभूति मुझको फिर से डांट रही।
‘तेरी यादें’ अब जीवन आधा बांट रही ।

आस्था दीक्षित

निवासी- कानपुर