कविता

दस्तक

हा ऊंघती सी  दोपहर मे
कोई देर तक खटखटा रहा था देह को मेरी
ओर मैं अलसायी सी ….. खुद को समेटे हुए
आंखों के कटोरों को बन्द करे पड़ी रही
देर तलक अनसुना करती रही
आवाज तेज़ हुई तो ,
उठ बैठी तो सामने मन को देखा
जो पसीने से लथपथ
लम्बी साँसे ले रहा था !
देर तक निःसचेत अवस्था में पड़ा बड़बड़ाता रहा
सुन देह
मैं तेरा ही तो हिस्सा हूं
क्यो मुझे  बिखेर कर अलग कर दिया
दर्द होता है , बहुत होता है
तू बुत बन सकता है
पर मुझे में तो कोई धड़कता है जो
बिलखता है , सिसकता है
मुक्त कर दो मुझे उस घुटन से
जो निराकार है मुझमे
सुनो
विसर्जन कर दो अब उसका
खंडित हो गया है वो !!
— डॉली 

डॉली अग्रवाल

पता - गुड़गांव ईमेल - dollyaggarwal76@gmail. com