कविता

बढ़ती उम्र, या घटती जिंदगी

जब मैं छोटा बच्चा था
बड़े होने की तमन्ना था
बड़ा हुआ तो जवानी आई
दूर खड़ा बुढ़ापे ने अपनी हाथ बढाई।
मैं डर के भागना चाहा बचपन में
डरने लगा उम्र के पचपन से
जवान होने का सपना धोखा था
बचपन में ही रहना एक सर्वणिम मौका था।
जवानी ने मेरे बचपन को बोला
आ जा बेटा मैनैं अपनी दरवाजे है खोला
जब वहां पहुंचा तो बुढ़ापे ने अपना मुँह खोला
कुछ साल रहले तू जवानी के पास तू है बड़ा भोला।
फिर,मैं सोचा दुनिया की यही है दस्तूर
बढ़ती उम्र से बचकर न जा पाऐंगे दूर
उम्र की चिंता करना है फितूर
बढ़ती उम्र के आगे हम सब हैं मजबूर।
हर उम्र को जी भर के जीना ही है सच्चाई
जिंदगी भले ही खत्म हो जाए पर अमर हो जाती है अच्छाई
हर उम्र में अपनी जिम्मेदारीयों के प्रति रहो सच्चा
चाहे बुढा हो, जवान हो या रहो बच्चा।
— मृदुल शरण