लघुकथा

घूंघट की दहलीज

“अरी ओ फौजन जल्दी आ आरती को देर हो रही है ”
“जरूर साड़ी बदल रही होगी ”
“साज श्रृंगार बिना तो हमारी फौजन दहलीज के बाहर भी न आती ”
गांव की औरतें बाहर खडी फौजन का इन्तजार करती हुई हंसी ठिठोली कर रहीं थी ।।
एक बहू जो शहरी परिवेश की कुछ दिनों के लिये गांव आई हुई थी उसको ये सब अजीब लग रहा था …जब रहा न गया तो उसने पूछ ही लिया …..
“बारह सालों से कोई औलाद नही और इनके पति भी साल भर में आते है तो फिर यह सजना संवरना किसके लिये”
सब एक दूसरे के मुँह देख रही थी… किसी को भी यह सुनना अच्छा नही लग रहा था पर सब चुप थी …
पर गांव की मुखिया ठकुराइन ने अपना पल्लू सरकाते हुऐ कहा ..”एक बात बता तू ये फैशनेवल कपडे क्यों पहनती है…हमारे गांव के लोग तो इन सब से अनजान है ..किसे दिखाना चाहती हो?”
मुँह से बोल न निकले उसके …..
ठकुराइन ने चुप्पी तोडते हुए कहा …
” ये साज श्रृंगार , सजना संवरना फौजन हम लोगों के लिये करती है जिससे हम लोग ये न समझे कि पति बार्डर पर है तो यह दुखी है……….और ………और ये लम्बा घूंघट इसलिये करती है कि इसके आंखो में जो दुख की  नमी है वह कोई देख न ले ”
कहकर उसका घूंघट उठा दिया , फफक पडी वह फौजन।
” आसान नही होता फौजन बनना ….सुना तुमने , आसान नही होता फौजन बनना”
एक सन्नाटे के साथ सारी औरतें आगे बढ गई …रह गई तो सवाल करने बाली ।।

— रजनी चतुर्वेदी (विलगैयां)

रजनी बिलगैयाँ

शिक्षा : पोस्ट ग्रेजुएट कामर्स, गृहणी पति व्यवसायी है, तीन बेटियां एक बेटा, निवास : बीना, जिला सागर