गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कभी बैठकर कभी लेटकर चल कर रोये बाबू जी,
घर की छत पर बैठ अकेले जमकर रोये बाबू जी।

अपनों का व्यवहार बुढ़ापे में गैरों सा लगता है,
इसी बात को मन ही मन में कह कर रोये बाबू जी।

बहुत दिनों के बाद शहर से जब बेटा घर को आया,
उसे देख कर खुश हो करके हॅस कर रोये बाबू जी।

नाती-पोते बीबी-बच्चे जब-जब उनसे दूर हुये,
अश्कों के गहरे सागर में बहकर रोये बाबू जी।

जीवन भर की करम-कमाई जब उनकी बेकार हुई,
पछतावे की ज्वाला में तब दहकर रोये बाबू जी।

शक्तिहीन हो गये और जब अपनों ने ठुकराया तो,
पीड़ा और घुटन को तब-तब सहकर रोये बाबू जी।

हरदम हॅसते रहते थे वो किन्तु कभी जब रोये तो,
सबसे अपनी आँख बचाकर छुपकर रोये बाबू जी।

तन्हाई में ‘गुलशन’ की जब याद बहुत ही आयी तो,
याद-याद में रोते-रोते थक कर रोये बाबू जी।

— डा. अशोक ‘गुलशन’

डॉ. अशोक "गुलशन"

पिता- स्व0 बृज बहादुर पाण्डेय जन्म तिथि- 25-06-1963 शिक्षा- बी0ए0एम0एस0 , डिप्लोमा इन नेचुरोपैथी डिप्लोमा इन हर्बल मेडिसिन सम्प्रति- प्रभारी चिकित्सा अधिकारी राजकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय नगर बहराइच (उत्तर प्रदेश) सम्पर्क- उत्तरी क़ानूनगोपुरा बहराइच (उ0प्र0) पिन-271801