हास्य व्यंग्य

हमहूं त देशहित में इहाँ फंसा पड़ा अही !

सीट-बेल्ट बाँधकर एक्सीलेटर दबाने के लिए जैसे ही उसपर पैर रखा, चिहुँक उठा, “ये ल्यौ ! घिसइया तो कार का बोनट पीट रहा है!” और “अरे गुरू! एत्ता दिन बाद अइन मउके पर मिल्यो, जइसे कहूँ हेराई गै रह्यो!” उवाचते हुए मिलने की खुशी भी जाहिर करता सुनाई दिया| मेरी यह बात कि “ड्यूटी पर जा रहा हूं, जरा जल्दी में हूँ।” को भी सुनने के लिए वह तैयार नहीं हुआ।

“तअ्..कआ..गुरू ! हमहीं फालतू अही कsआ, हमहूँ तअ्.. देशहित में इहाँ फँसा पड़ा अही..एकरे बदे तनी सलाह लेना चाहिथै आपसे।”

घिसई ने अस्फुट गलगलाहट जैसी आवाज में बोला।
वाकई! मैंने देखा, इस वाक्य के साथ मुँह में गुटखा भरे उसके मुखमंडल पर देशहित के लिए प्रतिबद्धता साफ झलक रही थी, जिससे मैं अभिभूत हो गया। इधर मुझे उसकी इस भावभंगिमा में स्वातंन्त्र्योत्तर काल के लोकतंत्र का ज्योतिकलश छलकने को आतुर होता परिलक्षित हुआ! अब रुकने के सिवा मेरे लिए और कोई चारा भी नहीं था। अन्यथा वह मुझे देशद्रोही साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी न लगाता। गए मेरे दस-पाँच मिनट। समय की ऐसे चिंता की, जैसे मेरे जेब से कुछ जा रहा हो!

“अरे गुरू कछु सोचऊ मति..कोनऊ कठिन सलाह न मगिबै..जरा पहिले आपन मरुतिया किनारे लगावा तअ।.”

मुँह ऊपर करके वह गलगलाया।

कार को मैंने थोड़ा और किनारे कर लिया। मुँह में भरे हुए गुटखे के गलार की पिचकारी वहीं सड़क पर उसने दे मारी और कार की खिड़की से अपना सिर लगभग अंदर लाते हुए बोला-

हम जानिथै गुरू, तू देशहित के बारे मां कुछ ज़ियादा सोचsथौ। तनी हमहूँ के बतावा, केहमें देशहित ज़ियादा है! एहमें वा ओहमें।”

उससे अपनी देशभक्ति का प्रमाण पाकर मेरा मन थोड़ा गदगद् टाइप का हुआ,

“वाकई! यह तो है ही कि मैं ठहरा देशभक्त टाइप का आदमी। …और जब घिसइया जैसा मुद्दई, अनपढ़..गँवार..मूरख..गरीब…मजदूर देशहित की चिंता में पड़ा है तो मेरी क्या बिसात कि देशहित के लिए कोई सलाह मांगे और मैं न दूं !”

बस फिर क्या था, इस विचार के साथ जैसे मेरा जमीर जाग उठा! और सोचा-

“यदि संस्थान के लिए विलंब होता है तो होता रहे, पहले इसका और अपना देशहित निपटाना जरूरी है..आखिर, किसी को देशहित की बात समझाना भी तो एक तरीके की देशभक्ति ही है, हाथ आए इस अवसर को फिसल जाने देना उचित नहीं होगा|.”

और मैं, उसे सहर्ष देशभक्ति का ज्ञान देने के लिए तैयार हो गया,

“पूँछो..पूँछो..यह एहमें, अोहमें क्या पूँछ रहे थे..!” घिसइया के मुँह से गुटखे की सुगन्ध निकल मेरे नथुनों तक पहुँची|

“गुरू..एतना पूँछई के रहा कि हमरे सामने समस्या ईs अहै कि दुइ पालटी..उ.ऊ..का है कि…” सिर खुजलाते हुए आगे बोला, “हाँ..एक पालटी..हमें संविधान बचाओ वाली रैली माँ..तो दूसर पालटी देशभगती वाली रैली माँ लीन्हें जाई चाहथै…गुरू तू अपनी की नाईं हमहू कs देशभगतई समझउ..कौउने रैली में जाई से ज़ियादा देशभगती होई, बस इहै हमइ बताइ द्यौ..!

कुछ पल सोचने के बाद मन ही मन उसकी बात को महत्वहीन समझ टालू अंदाज में कहा-

“अरे..घिसई..तू कौउनऊ में चल्ये जाऊ यार..! इहऊ देशभक्ती अउर उहऊ देशभक्तई…चाही संविधान बचावा..चाही देश, ई एक्कइ बात अहै..समझेउ!”

लेकिन गुरू…हमई बेवकूफ मत बनावा..सीधे-सीधे ई बतावा कि…टुकड़ा गैंग..एकता के लिए खतरा…देशद्रोही…में से कऊन गैंग मतलब पाल्टी देशहित के हिसाब से बढ़िया रहे…हाँ ऊ बतावा, जौउने से हम वोहमें शामिल होइ जाई, इब ज़ियादा बुझावा मत।

घिसइया पर देशभक्ति का पारा कुछ ज़्यादा ही चढ़ा था। अब मेरे दिमाग जी भी उसकी बातों में उलझना नहीं चाह रहे थे| मैंने उसे सीधे लताड़ा-

“तुम्हें आज कुछ काम-धाम नहीं मिला क्या? जो देशहित में पड़े हो, इसके चक्कर में तुम आज अपना पूरा दिन खराब करोगे क्या !

लेकिन मेरे इस लताड़ से वह जैसे और खिलकर चहक उठा और सीधी बात पर उतर आया-

“अरे गुरू..हम सेंत-मेंत में रैली में थोड़ी न जा रहे, दिन भर की दिहाड़ी के साथ खान-खच्च ऊपर से मिलना है!”
मैंने भी उससे पल्ला झाड़ा-

“तो, तुम्हें जिस पार्टी से ज़्यादा दिहाड़ी मिल रही हो उसी की रैली में जाओ। हाँ, और अगर समझ में न आए तो मोल-भाव कर लो।”

“का.आ..गुरू, आप जैसे देशभगत से ई उम्मीद नाहीं रही कि देशहित के बदे हमहिंन को सउदेबाजी-मोलभाउ करइ सिखउबा! ई त फिरि हमसे ना होई।”

घिसइया ने मुझपर ही तंज कसा, मेरे ही हथियार को मेरे सिर पर दे मारने के माफिक! अब ऐसे चतुर आदमी को मेरा मन आम आदमी के दर्जे पदच्युत करने के लिए उद्धत हो उठा! लेकिन अगले ही पल मैंने सोचा-

“आम आदमी ऐसेइ होता है, वह परिस्थितियों के साथ अपने आदर्शों, मान्यताओं का अनुकूलन करना जानता है। जहाँ एक तरफ उसे देशभक्ति की रैली में जाने के लिए दिहाड़ी भी चाहिए, तो वहीं दूसरी ओर आदर्श के फेर में हाथ आए मोलभाव का अवसर खोने से भी उसे ग़ुरेज़ नहीं। बेचारा यह आम आदमी ! दरअसल इस आम आदमी को सिंहासन नहीं चाहिए, इसे जीने के लिए बस छोटी-मोटी जरूरतों के पूरी होने की दरकार होती है, और अगर कुछ ज्यादा हुआ तो, ठसके के लिए बस थोड़ा सा जमीर चाहिए, जिसे ये अपने रोजमर्रा के झंझटों के बीच बचाए रखने की कोशिश करते रहते हैं।”

और अपने इसी विचार के साथ मैंने उसे आम आदमी के सिंहासन से पदच्युत करना उचित नहीं समझा। केवल करूणान्वित भाव से मुस्कुरा दिया। यह घिसइया तो मुझसे भी बड़ा देशभक्त निकला ! फिर भी उसके तंज से जैसे मेरे अहं को चोट लगी हो! निरूत्तर सा मैं सिर खुजलाने लगा, लेकिन अगले ही पल अचानक चहककर मैं बोल पड़ा-

“घिसई तू न, निरे बेवकूफ के बेवकूफ ही रहे, अगर ऐसे ही बेवकूफी करते फिरोगे तो कर चुके देशहित का काम! देशहित में काम करने के लिए बुद्धी की आवश्यकता पड़ती है, समझे ! दोनों पार्टियां अपनी-अपनी रैली में ले जाने के लिए तुम्हारे पीछे पड़ी हुई हैं, क्यों है न?

“हाँ..हाँ गुरू! ईहइ तो हम कहित रहे!” उसकी इस स्वीकारोक्ति पर मैं आगे बढ़ा-

“तो फिर, रैली के लिए तुम्हारी जबर्दस्त मांग है, क्यों नहीं सौदेबाजी करोगे, अँय.! अगर तुम इनसे सौदेबाजी कर लोगे तो तुम्हें फ़ायदा ही होगा। कुछ अधिक पैसे मिल जाएंगे और इससे तुम्हारी गरीबी दूर होने में मदद मिलेगी! है कि नहीं!! तो क्या गरीबी दूर करना देशहित का काम नहीं है !! अरे मेरे बच्चे, यह भी देशहित का ही काम है। तो सुनो, इस तरह चाहे अपनी हो या फिर दूसरे की, गरीबी दूर करना भी परम् देशभक्ति का ही काम है। समझे..!!”

मेरा बस इतना ही बोलना था कि घिसइया देशहित में उछल पड़ा-

व..व्वाह..गुरू..! आपके मन में देशहित के सिवा अऊर कुछ नाहीं चलथै..फुराखरि में ! जो आपसे सलाह न मांगे समझऊ ऊ देशद्रोही!!

उसने जैसे मेरी बलैया ली हो!! इसके बाद भाग कर वह फिर से उस लेबर वाले अपने स्थान जा खड़ा हुआ। मैंने देखा, रैली के आयोजकों ने उसे घेर लिया था, और उसके असपास जैसे गदर कटी हो! सोचा, जरूर वह सौदेबाजी में व्यस्त हो चुका है !

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.