संस्मरण

अतीत की अनुगूँज – 13 : पंछियों की वापसी और एक याद

         मार्च आ गया है। ठण्ड बहुत पडी है और तूफ़ान भी एक के बाद एक अलग अलग नाम धरकर आये हैं।  तूफानों को इंसानों के नाम देना मौसम विभाग की परम्परा है। अभी डेनिस नामक तूफ़ान ख़तम नहीं हुआ है। हवा तेज है और उसमे बर्फानी खुनक है।  मगर फूल अपनी पूरी छटा पर खिल गए हैं अपने समय से।  चिड़ियाँ भी दिखाई दे जाती हैं खासकर मेरे दाना डालने के समय।
अक्सर मार्च से हमारे बगीचे के ताल में बत्तखें आने लगती हैं। जल में छिपकलियों के जैसे न्यूट्स आ जाते हैं।  इसके आलावा मेंढक के अण्डों के छत्ते सतह पर तैरते हैं।  बत्तखें शायद उन्हें खाने आती हैं।  मगर मुझे उनसे लगाव है। वर्षों से वह इस घर की मेहमान रही हैं हमारे आने से पहले से। मुझे उनको देखना भाता है।  अन्य पड़ोसी अपने पोंड पर जाली लगवा लेते हैं ताकि उनके पाले हुए जलचर बचे रहें। मगर मैंने कभी मछलियां नहीं पालीं। मुझे बत्तखों का ताल में उतरकर घंटों  अठखेलियां करना सुहाता है। अक्सर वह बाहर बगीचे में घूमती हैं।
          इसके पीछे एक बीती हुई याद है।  एक बार मैं मायके में थी। नौराते आने वाले थे। माँ ने रोक लिया कुछ दिन के लिए। बोलीं कंजका करके जाना।  मेरी दो नन्हीं सी बेटियां थीं।  ऐन नौरातों से एक  दिन  पहले हमारे पिताजी का कोई पुराना खादिम उनसे मिलने आया।  उन दिनों वह बहुत अच्छे नहीं थे। रक्तचाप बहुत ऊपर चला गया था।  यह व्यक्ति मुसलमान था अतः बेचारे को हमारे त्यौहार वार क्या पता।  पिताजी को खुश करने के लिए वह एक ताजा शिकार की हुई बत्तख ले आया।  बोला ,साब छर्रा टांग में लगा था। लंगड़ा रही थी सो हमने गमछा डालकर पकड़ ली।  मरी नहीं थी इसलिए उड़ जाती सो हमने इसका जखम के पास वाला  पंख तोड़ दिया है।  अगर मर जाती  तो खराब हो जाती इसलिए हम जिन्दा को ले आये हैं।   आपको जब पकानी हो मार लीजियेगा।
          घर में केवल पिताजी गोश्त खाने वाले थे। स्त्रियां नहीं खाती थीं।  खासकर मैं।  खाना बनानेवाला नौकर बहुत बेताब था पकाने के लिए।   मैंने देखा जाकर। एक टोकरी में पुआल बिछाकर वह आदमी अधमरी बत्तख छोड़ गया था। बेचारी चिड़िया खासी बड़ी थी। ‘मारने पर तीन चार किलो गोश्त निकलता आराम से।  पर वह चोंच ऊपर करके हांफ रही थी।  मैंने नौकर से कहा इसको पानी पिला।  वह पानी लाने के बजाय पिताजी से मेरी शिकायत लगाने गया। बच्ची की दूध की बोतल के निपल के छेंक को थोड़ा बड़ा किया और बूँद बूँद टपका कर   मैंने खुद पानी पिलाया।   उसने चैन से आँखें बंद कर लीं। पर उसकी सांस चल रही थी।  अभी वह घर से बाहर ही रखी हुई थी।  माँ नहीं चाहती थीं कि यह सब बखेड़ा घर में हो।  घर पूरा धुल गया था अगले दिन की तैयारी में। मगर नौकर बहादुर पिताजी को पट्टी पढ़ा रहा था।  मेरी आँखें डबडबा गईं।
        माँ की सहमति तो थी ही मैंने जोर देकर कहा कि नौरातों में गोश्त नहीं बनेगा।  अगर यह मर जाती है तो इसको कहीं और भेज दीजियेगा मगर  मारने नहीं दूँगी।  छत पर रखने को कहा तो माँ ने मना कर दिया यह सोंचकर कि रात बिरात  अगर मर गयी तो अगले दिन घर अशुद्ध हो जाएगा।  अतः उसको घर के नीचे बगिया में रख दिया गया।  मैं बराबर उसे पानी देती रही। शाम को  दूधवाला आया तो उसने देखा।  बेचारे भलेमानस ने एक उपले  थोपनेवाला टोकरा उसके  ऊपर  ढँक दिया  और बड़ा  सा पत्थर रख दिया।  अगले दिन पिता जी ने कहा कि इसको  जिन्दा  रखो नौरातों  के बाद  देखेंगे।  बहादुर की ड्यूटी लगा दी दाना पानी देने की।  मैं चने की दाल भिगा कर कसोरे में देती और एक पानी का बर्तन भी टोकरे के नीचे रखवा दिया।  अच्छी  खासी गर्मी शुरू हो गयी थी ।
          तीसरे दिन देखा बत्तख ने  दाना पानी अपने आप ख़तम कर लिया था । इसका मतलब कि  वह खड़ी हुई होगी।  जैसे ही देखा की टोकरी हिल डुल रही है , बहादुर ने कीला गाड़कर उसके पाँव में कुत्तेवाली   चैन डाल दी ताकि वह कहीं चली ना जाये।  चौथे दिन सुबह सुबह चार बजे ब्राह्म मुहूर्त के  सन्नाटे में  एक कर्णभेदी चीत्कार सबकी नींद हराम करने लगी।  बहादुर को भेजा गया नीचे देखने के लिए।  बत्तख टोकरे को पूरी ताकत से हटाने की कोशिश कर रही थी।  बहादुर ने हटा दिया तो वह लंगड़ा कर इधर उधर घूमने लगी।  चलते फिरते जानवर को गली के कुत्ते आदि तंग नहीं करेंगे। ऐसा सोंचकर बहादुर ने उसे खुला छोड़ दिया।  चैन तो बंधी ही थी।
           नौराते पूरे होने से पहले ही वह अच्छी खासी स्वस्थ हो गयी और मोहल्ले भर के बच्चों का मनोरंजन करने लगी मगर उतना ही बड़ा सर दर्द भी देने लगी क्योंकि उसका टर्राना भला कौन बर्दाश करता।  नवमी भी हो गयी। पिताजी पहले से बेहतर थे।  अपने आप बहादुर से कहा। इसे गोमती नदी में  छोड़कर आ। उन दिनों हमारे घर के पास लखनऊ का विवेकानंद अस्पताल बन रहा था।  सीमेंट आदि मिलाने के लिए एक विशाल गड्ढा खोदा गया था जिसमे पानी भरा था। बहादुर राम जी उसको उसी में छोड़ आये।  वह बाकायदा चैन से बंधे कुत्ते की तरह पैयां पैयां चलकर गयी हालांकि अभी एक ओर  का पंख लटका हुआ था थोड़ा।  पानी देखते ही उसने आकाश की ओर देखकर जोर की बांग लगाई और चैन खोलते ही उसमे डुबकी लगा दी।
           दो तीन वर्ष बाद मैं फिर से लखनऊ गयी तो देखा हस्पताल पूरा बन गया था। सीमेंट के गड्ढे का खूबसूरत फव्वारा बना हुआ था और उसमे कई बत्तखें तैर रही थीं। मैंने माँ से कहा हस्पताल का फव्वारा सुन्दर लग रहा है। तो बहादुर ने पूछा आपने लंगड़ी बत्तख नहीं देखि ? उसी की औलाद हैं सब।  पूरा ताल भर दिया है। मार रोज रोज टेरत रही मुंह उठाके। बुला लीं अपने मीत को।  मैं समझ गयी यह बत्तख नर होगा और अपने जनन काल के मौसम में ऊपर उड़ती चिड़ियों को टेरता होगा। संयोग से किसी ने सुन लिया और उसका घर बस गया।
         इंग्लैंड के वासियों ने ही हमारे देश में दुनाली बंदूकों से शिकार को अपना व्यसन बनाया हुआ था। यह ताज़ी चिड़ियाँ मार कर खाना आदि साहबों के  रिवाज़ हमारे स्वतन्त्र भारत के अफसरों को विरासत में दे गए। मगर अब इतना रिवाज़ नहीं रह गया है क्योकि अब इतने पंछी भी नहीं दिखाई देते और न वह वन्य सम्पदा।
        मगर इंग्लैंड में शिकार पर रोक लगा दी गयी है।  अपने पशु पक्षियों की सतत रक्षा करना इनका धर्म बन गया है।  हरेक घर में बच्चों को जानवरों से  प्रेम  करना सिखाया जाता है।  घर में पालतू कुत्ते बिल्ली या मछली जरूर होती है।  नन्हें बच्चों के क्लासरूम में पारदर्शी सफ़ेद प्लास्टिक के बड़े बड़े हौदे रखे जाते हैं जिनमे मेंढक के अंडे पाले जाते हैं। जब नन्हें नन्हें टैडपोल निकलते हैं तब उनको देखकर बच्चे प्रकृति का जीवन चक्र समझते हैं।  किताबों में  पालतू जानवरों को परिवार के सदस्य की तरह चित्रित किया जाता है।  वन्य पशुओं पर आधारित कथाएं,और मिथक सरल भाषा में लिखे जाते हैं।  वन्य पशुओं को आधार बनाकर अनेक कहानियां रची गयी हैं जिनमे इन भयानक पशुओं को मित्र रूप में दर्शाया गया है ताकि बच्चे इनको शिकार न समझकर धरती के रत्न समझें।  रोज विश्व में होनेवाले पशु संहार के दयनीय चित्रों के माध्यम से टेलीविज़न पर जनता से उनकी सुरक्षा एवं पोषण के लिए चन्दा  माँगा जा रहा है जो नष्टप्राय प्रजातियों की रक्षा करने के काम आएगा।
         पृथ्वी के अमूल्य जीव जंतुओं के भविष्य को सुरक्षित करने का कार्य बच्चों को सिखाया जाता है।  पालतू एवं भोज्य पशु भी दया और पोषण और सफाई के हकदार हैं इसलिए प्रत्येक बालक को स्कूल  की ओर से पशु शालाओं में ले जाया जाता है।  बड़े पशुपालकों ने अपने फार्म में  इस तरह के आयोजन किये है की आनेवाले नन्हें बालक बैठकर खा पी सकें। गाय के बछड़े या खरगोश या सूअर के छौने  छू कर या उठाकर प्यार कर सकें।   बाग़ में आनेवाली चिड़ियाँ बड़े से पिंजरे में रख दी गईं हैं और बच्चों को उनके नाम सिखाये जाते हैं।  भेड़  के मेमनों को वह जाली में से बोतल से दूध पिला सकते हैं  . मुर्गियों को दाना खिला सकते हैं। आदि।  यह अनुभव उनको जीवन भर याद रहते हैं। आगे जाकर अनेक बच्चे फार्म पर काम करते हैं। तकरीबन हर इलाके में एक पौधे बेचने वाली नर्सरी होती है।  फरवरी मार्च से लोग पौधों के बीज या जमी जमाई पौध खरीद कर बोआई शुरू कर देते हैं। इन दुकानों के लिए बहुत विशाल क्षेत्र चाहिए। कई एकर में यह फैले होते हैं इनको गार्डन सेण्टर कहा जाता है।  अब इनके मालिकों ने कुछ हिस्सा बच्चों के लिए सुरक्षित कर दिया है।  जिसमे बाड़े और जालीदार खांचे बनाकर जानवर और चिड़ियाँ रखे जाते हैं।  इससे बच्चे वालियां आकर्षित होकर आती हैं।  बच्चे मेमनों को भूसा खिलाते हैं या  चिड़ियों को दाना देते हैं। उनको खरगोश उठाने और दुलराने की सुविधा है।  मुरग़ीबाड़ा आदि भी उपलब्ध है।  डिज़नी ने अनेक कहानियों पर फिल्म बनाई हैं जिनमे दी लायन किंग और बेब आदि बहुत लोकप्रिय हुई हैं।    हमारे यहां     डंगर डॉक्टर कह कर मज़ाक बनाया जाता है मगर इस देश में वेटेरिनरी सर्जन लाखों कमा रहे हैं और उनकी बहुत मांग है।
           चलते चलते एक और किस्सा।
           विश्व के सभी औद्योगिक शहर अपराध के केंद्र भी हैं।  बोलनेवाले तोते अंग्रेजों को बहुत प्रिय हैं।  भारत का मिट्ठू बेटा यहाँ सबसे अधिक मांग में है।  लंदन ज़ू में हमने पहली बार साफ़ बोलनेवाली मैना को देखा उसके पालक ने उसको अंग्रेजी और हिंदी दोनों में बोलना सिखा रखा था जाने किस इशारे से उसने हमको नमस्ते कहा। फिर बोली आइये आपका स्वागत है।  हमारे बादवाले दर्शक को उसने कहा हेलो।  हाऊ डू यू डू। वेलकम टु द ज़ू।  कैसे  पहचाना मालुम नहीं।  उसके पिंजरे पर लिखा था इंडियन मैना।
          करीब तीस वर्ष पहले हरा हिमालयी तोता केवल पिंजरे में दिख जाता था।  एक बार हीथ्रो एयरपोर्ट पर काम करनेवाले कर्मचारी बांग्ला देश से आई हुई तरकारी की ढुलवाई  कर रहे थे। जब काम का समय ख़तम हो गया तो गोदाम बंद करके घर जाने से पहले  एक अंग्रेज ने कुछ आवाजें सुनी तो उसको शक हुआ। साग भाजी के नीचे दबी हुई एक टोकरी से ची ची सुनाई दी। वह  अकेला था। उसने टोकरे का मुआयना किया तो बोरे  से ढंके तोते के चूज़े दिखे। गरम स्थान में वह शायद कई दिन से बंद थे। उनके पंख अच्छे खासे निकल आये थे।यह बांलादेश से स्मगलिंग करके भेजे गए थे क्योंकि बाज़ार में इनका दाम बहुत ऊंचा होता है।    नियम क़ानून के अनुसार उनको भट्टी में डालकर नष्ट कर देने का  विधान है मगर उस व्यक्ति को दया आ गयी।  उसने वह टोकरा बाहर लेजाकर उनको उड़ा दिया।  शायद वह मर भी जाते मगर ईश्वर की माया से वह आस पास के पेड़ों पर जा बैठे। कालान्तर में वह बस गए।  अब दक्षिणी इंग्लैंड में उनकी तादाद इतनी प्रबल गति से बढ़ी कि किसानो को उनसे फसलें बचाना मुश्किल लगता है। कई जगह उनको छर्रे वाली दुनालियों से झुण्ड के झुण्ड मारने पड़ते हैं क्योंकि वह अनाज की बालियां नष्ट कर देते हैं और फल के पेड़।  नाशपाती और चेरी के दुश्मन हैं।  यही नहीं अन्य पंछियों के अंडे खा जाते हैं और कोटरों पर कब्जा जमा लेते हैं जिससे कठफोड़वे आने कम हो गए हैं।  मेरे बगीचे में सुबह चार बजे से शोर शुरू हो जाता है।  पहले गौरैयाँ आती थीं चहकती।  मगर वाई फाई के पोल जगह जगह लग जाने से उनका आना बंद हो गया हमारे देखते देखते। अब उनकी जगह तोते पल गए हैं। इसका बड़ा कारन ग्लोबल वार्मिंग भी है।
रॉयल सोसाइटी फॉर दी प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्ड्स यानि RSPB  इस देश की चिड़ियों के स्वस्थ और निष्कंटक स्थायित्व के लिए निरंतर सक्रीय है और इसके चिकित्सक विश्व भर के पक्षियों का अध्ययन करते हैं ,उनके रिकार्ड्स बनाते हैं और पत्रिकाएं छापते हैं। दूरबीन से पक्षियों के दर्शन करना कई नागरिकों का व्यसन है।

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल kadamehra@gmail.com