कविता

ख्वाब

खुली आंखों से हमने ख्वाब सजाए हैं,
ख्वाब ;जो कुछ अपनेऔर कुछ पराए हैं।
पलकों की सिलवटों में जिनको छुपाया है,
जमाने की बुरी नजरों से उनको बचाया है।

चांदनी सी शीतलता लिए हैं कभी तो,
कभी दुपहरी का गर्म साया हैं।
कभी गुदगुदाकर हंसाया है हमको
कभी जी भरकर रुलाया है।

ख्वाबों की फितरत भी कितनी अनोखी है,
कभी मीठी चाशनी है, कभी तीखी से मिर्ची है।
कभी मायूस कर देते हैं यह हमको,
कभी उम्मीद का दामन थमाते हैं।

नींद के आगोश में जो सुनहरे रंग भरते हैं,
खुली आंखों से हकीकत को दिखाते हैं।
चाह कर भी वो न मिल पाते हकीकत में,
ख्वाब जो हम खुली आंखों में सजाते हैं।

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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