मुक्तक/दोहा

मुक्तक

१)
आंधियों को चीरकर बढ़ना है तुझको ।
नित नया इतिहास फिर गढ़ना है तुझको ।।
आग के दरिया को कब किसने रोका है ।
पाषाण हैं रहें कठिन चढ़ना है तुझको ।।

२)

ना वेद जानती हूं, ना कुरान जानती ।
ना हीं कोई में विश्व का, विधान जानती ।।
माता-पिता हीं ऐसे हैं,मेरे इस जहान में ।
जिनको हूं पूजती,और भगवान जानती ।।

३)

अपने आँगन का, मान होती हैं ।
वो पिता का, ग़ुमान होती हैं ।।
ये जहाँ को, ख़ुदा कि नेमत हैं ।
बेटी गौरव का, गान होती हैं ।।

४)

आज के दिन मैं उसके साथ थी ।।
हाथों में थामें उसका हाथ थी ।।
दूर जाते देख उसे मैं रोई बहुत ।
जाने उसमें ऐसी क्या बात थी ।।

५)
घर की बेटियाँ,लाख मुसीबत ढ़ोती हैं ।
चेहरा हंसता और निगाहें रोती हैं ।।
करें तरक्की लाख भले दुनियां में ये ।
घर की मुर्गी दाल बराबर होती है ।।

— क्रांति पांडेय “दीपक्रांति”