लघुकथा

आतंक का दंश

आतंक का दंश
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कालिया नाग बौखलाया हुआ था । पड़ोस के मोहल्लों में लोगों के घरों में घुसकर छिप जाता और मौका मिलते ही उन्हें डस लेता । चारों तरफ उसका खौफ छाया हुआ था । रमेश ने मौके की नजाकत को देखते हुए अपने पिता चौधरी रामलाल को पहले ही आगाह कर दिया था लेकिन उन्होंने उसकी बात अनसुनी करते हुए दंभ से कहा था ,” आने तो दो कालिया को ! हमारे घर में उसकी दाल नहीं गलेगी ! “
उसी दिन घर के एक सदस्य को एक कमरे में कालिया नाग की फुफकार सुनाई पड़ी ! तुरंत ही घर के सारे सदस्य बाहर के कमरे में जमा हो गए । सबके चेहरों पर खौफ स्पष्ट नजर आ रहा था । सबको पता था कि कालिया को घर से बाहर निकालना बिल्कुल ही असंभव था और उसके साथ घर में रहना तो साक्षात मौत के मुँह में रहने जैसा ! कुछ देर सोचने के बाद चौधरी जी ने आदेश दिया ,” कालिया नाग के आतंक को देखते हुए हम घर में रहने का खतरा नहीं उठा सकते । कृपया घर के सभी सदस्य तत्काल बाहर आ जाएं । “
चौधरी जी की बात सुनकर सदस्यों में खुसरफुसर शुरू हो गई । रमेश ने उनको समझाते हुए कहा ,” मुख्य दरवाजे की सुरक्षा न करके हम एक गलती कर चुके हैं और नतीजा देख रहे हैं । अब पिताजी की बात न मानकर दूसरी गलती नहीं कर सकते । सभी से निवेदन है तत्काल घर से बाहर आ जाएं और कम से कम चौबीस घंटे घर से बाहर ही रहें । इतनी देर तक किसी इंसान को न पाकर कालिया नाग स्वतः ही घर छोड़कर भाग जाएगा । “
अगले कुछ ही मिनटों में सभी घरवाले घर से बाहर खुले मैदान में थे ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।