कविता

जनता कर्फ्यू

ऐसा मंजर न मैंने कभी देखा
हवाओं को सिर्फ साए साए करते देखा
निकला था घर से कुछ दवाई लेने
आलम जो देखा सोसायटी से बाहर अाके
दुकानें थी बन्द छोटी बड़ी सब
डॉक्टर का दवाखाना खुला था
खुली थी औषधि की दुकानें
न परचूनी की दुकान खुली थी
न ठेला लगा था चाय वाला
सड़कें थी सुनी
जेठ की दोपहरी जैसी
बसे थी खाली
ऑटो थे खाली
ये बंदी न किसी दल ने बुलाई
न घोषित की सरकार ने
यह फैसला था
खुद जनता का
इसे आप दहशत समझिए मौत की
या आई हुई आपदा से निपटने के लिए जंग की

— ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020