कविता

जनजातियां

आदिवासी कहे या जनजातियां
इनकी जीवन को क्या कहने
रही फूस की टूटी झोपड़ी
फटे पुराने कपड़े पहने
कपड़े भी खूब मेला रहते
बच्चो की तो जीवनलीला ही कैसा
सुबह शाम सब धूल में खेले
रात अंधेरे में लिपट गए
क्या कुदरत की कैसी माया
कैसा उनको जीवन दिया!
व्रत त्योहार से मतलब नहीं
खान पान हो सदा सुखहरी
सूअर पालन हैं व्यवसाय
उससे चलता इनका काम
साड़ी कुर्ता पहनते है ये
मेला रंग में लिपटे रहते
क्या कुदरत की कैसी माया
कैसा उनको जीवन दिया!
विजया लक्ष्मी

बिजया लक्ष्मी

बिजया लक्ष्मी (स्नातकोत्तर छात्रा) पता -चेनारी रोहतास सासाराम बिहार।