लघुकथा

संतोष

” अजी सुन रहे हो कलुआ के बाबू ? सरकारी बंदी का आज पाँचवां दिन है और घर में अनाज का एक दाना भी नहीं है । अभी तो और सोलह दिन हमें बिताने हैं इसी तरह झुग्गी में ! ” परबतिया के स्वर में वेदना झलक रही थी ।
” मुझे भी इसकी चिंता है कलुआ की माँ ! लेकिन तुम्हीं बताओ क्या करूँ मैं ? इस मुई महामारी की वजह से पहले ही कई दिन बेकार रहा हूँ और अब तो इस इक्कीस दिन के लॉकडाउन में दिहाड़ी मिलने की कोई उम्मीद ही नहीं । बड़ी मुश्किल से बनिये से राशन उधार लाया था । अब पिछला चुकाए बिना वह और राशन तो देने से रहा । ” हरिया ने अपना दर्द व्यक्त किया ।
 ” तो क्या करें हम ? तुम चाहते हो कि हम अपने बच्चे सहित यहीं घर में पड़े पड़े मर जाएं ? ” परबतिया रुआँसी हो गई थी ।
” अब भगवान जैसे भी रखे , लेकिन मैं किसी भी सूरत में घर से बाहर नहीं जाऊँगा । अगर हम घर में भूख से मर गए तो कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा , लेकिन सरकार की बात न मानकर अगर हम बाहर गए और बिमारी की चपेट में आ गए तो न जाने कितनों की जान हम लेकर जाएंगे ! क्या तुम यह चाहती हो कि मैं अपनी जान बचाने के लिए लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ कर लूँ और सरकार के प्रयासों पर पानी फेर दूँ ? ” हरिया ने विवशता से कहा ।
” नहीं कलुआ के बाबू ! नहीं ! भगवान हमें जिस हाल में भी रखेगा रह लेंगे , जीना होगा तो जी लेंगे लेकिन अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की जान खतरे में नहीं डालेंगे ! और फिर ये भी तो हो सकता है कि सरकार हम गरीबों की भी कोई सुधि ले ! ” परबतिया की बात सुनकर हरिया के चेहरे पर संतोष झलकने लगा ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।