कविता

समुंदर की अजीब दास्तां

इस समुंदर की भी अजीब दास्तां है
समेटे है अपने में जहां का खारापन
जब बरसता है तो कहां चला जाता है इसका खारापान
रिमझिम रिमझिम करके लुटाता है मीठापन
जलाता है बदन अपना नुनखुरे पानी से
पर आह भी निकलती नहीं
नुनखुरा है फिर भी सारी नदियां बेताब है मिलने को इससे
कैसा है समुंदर नदी का प्रेम
समर्पित कर अपना मीठापन खुद खारी हो जाती है
मिटा अपना अस्तित्व खो जाती इसके आगोश में
उनके प्यार को बड़े सहेज कर रखता है समुंदर
अपने रूप में से फिर एक नया रूप देता है उनको
बरस कर फिर लौटा देता है उनको उनका मीठापन
अजीब है समुंदर का यह पागलपन
खुद खारा पर लोटाता मीठा है
अपने अंदर सहेज के नहीं रखता कुछ भी
सब कुछ लौटा देता है वापिस
उपर से हो भले इसमें हलचल
पर बड़ा धीर गंभीर है अंदर से
यू ही नहीं कहते इसे दरियादिल

— ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020