लघुकथा

खौफ – भूख का

खौफ – भूख का
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लॉक डाउन की घोषणा हो चुकी थी । आज तीसरा दिन था । कंधे पर बैग , सिर पर पोटलियाँ और हाथों में नन्हें मुन्ने बच्चों का हाथ थामे लोगों का हुजूम सड़क से जाते हुए देखकर अमर का क्रोध के मारे बुरा हाल था । ” ऐसे जाहिलों की वजह से ही सरकार के अच्छे प्रयासों पर भी पानी फिर जाता है । ” बड़बड़ाते हुए वह उतर गया अपने घर से नीचे ।
लोगों के रेले में से कुछ लोगों के एक समूह में से एक से पूछ ही लिया ,” अरे भाई ! कहाँ जा रहे हो तुम सब ? जानते नहीं लॉक डाउन शुरू है जिसमें घर से बाहर निकलना मना है ? ”
” अरे साहब ! घर में रहने के लिए घर भी तो होना चाहिए न ? ”
” घर नहीं तो न सही ! जहाँ थे वहीं नहीं रह सकते थे ? जानते हो , तुम लोगों की वजह से पूरे समाज के लिए खतरा बढ़ गया है ? तुम लोगों की खुद की जान खतरे में है ! ”
” अरे साहब ! हम ठहरे गरीब लोग ! सरकार की नजर में हमारी और हमारे जान की कीमत किसी कीड़े मकोड़े से अधिक नहीं …..! ”
उसकी बात बीच में ही काटते हुए अमर बिफर पड़ा ,” सरकार चाहे जितना भी कर ले लेकिन तुम गरीब लोगों की सरकार से शिकायतें कभी कम नहीं होंगी । ”
” ठीक कह रहे हो बाबू ! लेकिन हम गरीब लोग हैं यही हमारा दुर्भाग है । हमारी सरकार विदेशों में बसे देशवासियों के लिए संकट के समय अपने खर्चे से हवाई जहाज की व्यवस्था करवा सकती है , कई बार किया भी है लेकिन जब हम गरीबों को इसी सहायता की जरूरत पड़ी है तो हमारे लिए अपने गाँव जाने के लिए न बस न रेल और न ही कोई और साधन ! अब पैदल भी न जाएं तो क्या करें ? ”
” लेकिन तुम्हें शहर छोड़कर जाने की जरूरत ही क्या है ? ”
” जरूरत है साहब ! हम जानते हैं कि हम इस तरह बाहर चल रहे हैं तो शायद हम बीमारी की चपेट में आ जाएं और मर जाएं लेकिन आप नहीं जानते कि अगर हम यहाँ रुके तो बीमारी से तो शायद बच भी जाएं लेकिन भूख से जरूर मर जाएंगे । “

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

One thought on “खौफ – भूख का

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते एवं धन्यवाद्। बहुत दिनों बाद आप की रचना पढ़ी। बहुत अच्छी लगी। सादर।

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