कविता

भूख का कोई धर्म नहीं

भूख का कोई ईमान धर्म नहीं।
जात- पात, लिंगभेद के भेदभाव से दूर,
उम्र की सीमा से परे,
अबोध, युवा और बुजुर्ग सभी को
सताती, रुलाती, तड़पाती है यह भूख।

भूख के रूप भी कितने भिन्न भिन्न है,
किसी को भूख है पेट की आग बुझाने की,
किसी को भूख है बुलंदियों तक पहुंच जाने की।
कोई बेबस है भूख से प्राण त्यागने को,
तो किसी को भूख है कालाबाजारी की।

कोई अपनों की भूख को देख मचलता है,
कोई अपनों को ही भूख के लिए छलता है।
किसी के आंचल तले भूखा कोई रोता है,
तो कोई उस आंचल के कर्ज चुकाने की भूख संजोता है।

अक्सर जन सैलाब उमड़ता है,
सड़कों,बाजारों और चौराहों पर।
पेट, पद और सत्ता की भूख लिए,
किसान, मजदूर,व्यापारी और नेता के रूप में।

रोजी रोटी,मान प्रतिष्ठा की तलाश में,
धूल, मिट्टी,अपमान,दंभ झेलते लोग
दिख जाते हैं हर जगह,हर पल
वाकई,भूख का कोई धर्म नहीं।

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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