ग़ज़ल
जाहिलों का इस देश में कोई काम थोड़ी है
ये मादरे-वतन है ग़द्दारों का मुक़ाम थोड़ी है
अगर कोई थूकता है तो उससे ही चटवा दो
ये वायरस के वाहक हैं कोई मेहमान थोड़ी हैं
जो देश के क़ानून को न मानें तो ऊपर भेजो
ये समाज के दुश्मन हैं अब्दुल कलाम थोड़ी हैं
इंसानियत की घोर दुश्मन है ये सारी जमात
ये कोई मासूम सी सीधी अवाम थोड़ी है
जिनको न चैन से रहना है, न रहने देना है
वे जायें जहन्नुम में ये अब्बा का धाम थोड़ी है
— डॉ विजय कुमार सिंघल