कविता

घरबंदी

इस घरबंदी के कारण
मैं लौट न सका अपने गांव
ठहर गया अपने पुत्र के पास
वो रहता पुना अपनी गृहस्थी के साथ
अच्छा ही हुआ
पूरे परिवार को एक साथ रहने का मौका मिल गया
उसके नौकरी करने के बाद एक लंबे समय तक रहने का
हालाकि करता भी क्या मैं गांव जाकर
जी रहा हूं रिटायर्ड होकर
काम में अब कुछ दिलचस्पी नहीं
करना है बस जीवनयापन
यहां कर लो या वहां कर लो
कौन फर्क पड़ता है
कट जाए बस सकूं से
गांव में होते तो होते घर के अंदर
यहां भी हैं घर के अंदर
पर है एक संतोष
चिंता नहीं
शाम जब ढलती है तो ढलता सूरज पहन बैरागी चादर
दिखता है बेडरूम की खिड़की से
उसके इस रूप को निहारना अच्छा लगता है
धीरे धीरे उसका छिपना ऊंचे ऊंचे इमारतों के पीछे
फिर नारंगी चादर फैल जाना आसमां में
देख मन आनंदित होता है
निशा का भी अपने पैर पसारना शुरू हो जाता है
जग मग हो जाती है सारी इमारतें
चहुं ओर दीवाली लगती है
रात को जब लेटता हूं बेड रूम में
तो खिड़की से खुला आसमान नजर आता है
जिस पे चांद टंगा होता है
उसका बढ़ना घटना देखा करता हूं
दौज पर लकीर की मानिंद दिखता है
चोथ पर लाल आभा लिए दिखता है
पूर्ण कला पे दूधिया चांदनी बिखेरते हुए
बड़ा शीतल नजर आता है
अपनी आभा के साथ शुक्र ग्रह भी दिखता है
बहुत सुखद लगता है
अपने गांव के बेडरूम से तो यह सब दिखता नहीं
लगता है डूब जाए इन चांद तारों की दुनिया में
पर है नहीं ये संभव
यथार्थ के धरातल पर ही रहना होगा
यही तो जिंदगी है

ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020