इतिहास

वर्द्धमान महावीर

करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व, ईसा से 600 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के कश्यप कुल में कुण्डलपुर में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहाँ तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल तेरस को वर्द्धमान का जन्म हुआ। यही वर्द्धमान बाद में स्वामी महावीर बने। जिस प्रकार प्रभु श्री राम ने राज पाट को त्यागकर वन का पथ चुना था उसी प्रकार महावीर ने भी अपने पिता के अक्षुण राज्य को त्याग तपस्या व ज्ञान के पथ को चुना। धर्म व ज्ञान की तलाश में राज्य, सगे संबन्धी, परिवार को छोड़कर वन को प्रस्थान किया। जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक बने। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था। एक वस्त्र तक का लोभ उन्होंने कभी नही किया। समाज के तत्कालीन दुर्गुणों जैसे हिंसा, पशुबलि, जाति-पाँति के भेदभाव जिस युग में बढ़ गए, उसी युग में महावीर और बुद्ध ने जन्म लिया। दोनों ही महापुरुषों ने समाज के इन दुर्विकारों पर आघात किए, पूर्ण जीवन संघर्ष तक अपनी तपस्या में लीन रहे, कहते है कि धर्म की सदैव विजय हुई है इनके उपदेशों से जन जन की मानसिकता, विचार, बदलने में सफल भी हुए । सनातन धर्म के मूल नियमों की प्रेरणा देकर समाज को सही दिशा देने का काम भगवान महावीर ने किया। उस काल में राज्य वैभव व सीमाओं के विस्तार के लिए कई रक्तपात हुए, छोटे छोटे राज्य आपस में युद्ध में सदैव रत रहते थे, इसी समस्या से उद्वेलित होकर भगवान महावीर ने अहिंसा का मार्ग चुना। अहिंसा का ऐसा दर्शन विश्व को दिया जिसका अनुसरण आज भी किया जाना आवश्यक है।
सनातन धर्म सतयुग के आरंभ से ही अहिंसा धर्म पर चलने वाला रहा, काल, समय, चरित्र के होते पतन के कारण मनुष्य में कई दुर्गुण व विकार आ गए। जिन्हें समय समय पर महापुरुषों ने उचित मार्गदर्शन करके समाप्त किया।  भगवान महावीर के जन्म स्थल को लेकर विद्वानों में भले ही मतभेद हो परन्तु इतना निश्चित है कि जब वह भारत की धरा पर अवतरित होकर जन कल्याण में प्रवृत हुए उस समय ईराक में जराथुस्त्र, फिलिस्तीन में जिरेमिया और ईराजकिल, चीन में कन्फ्युसियस और लाओत्से तथा यूनान में पाइथागोरस, सुकरात और प्लेटो जैसे चिन्तकों के विचार जन-जन को आन्दोलित किए हुए थे। भारत में भगवान महावीर एवं भगवान बुद्ध अपने अपने ढंग से तात्कालिक ज्वंलत दार्शनिक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत कर रहे थे। इनके विवाह के संबंध में श्वेतांबर व दिगंबर दोनों ही मतों में थोड़ी भिन्नता है, वर्द्धमान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या की और तरह-तरह के कष्ट झेले। अन्त में उन्हें ‘केवलज्ञान’ प्राप्त हुआ। केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए उपदेश देना शुरू किया। अर्धमागधी भाषा में वे उपदेश करने लगे ताकि जनता उसे भलीभाँति समझ सके।
भगवान महावीर वर्ण व्यवस्था को जन्म पर आधारित करके स्वीकार करना नहीं चाहते थे। उन्होंने कहा, ”कोई भी व्यक्ति जाति अथवा वर्ण से ऊँच-नीच नहीं होता, गुण और कर्म के आधार पर ही उसकी महत्ता और लघुता का अंकन होता है।” समाज में स्त्री की समानता के वे प्रबल पक्षपाती थे। स्त्री को समानता का दर्जा देते हुए उन्होंने कहा कि स्त्री करुणा और वात्सल्य की प्रतिमूर्ति होती है। उसे हीन और उपेक्षित मानना अनुचित ही नहीं बल्कि अहिंसा ही है। व्यवहार रूप में उन्होंने स्त्रियों और शुद्रों को अपने धर्म संघों में समान अवसर प्रदान करके विश्व के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने हर आदर्श को पहले ‘जिया तथा किया` और फिर कहा। कथनी और करनी में अन्तर न होने के कारण ही वे अनुकरणीय आदर्श के रूप में अभिन्दनीय और वन्दनीय हो गए।
भगवान महावीर के प्रमुख संदेश
मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म अहिंसा है। अत: हमें हमेशा जियो और जीने दो के संदेश पर कायम रहना चाहिए महावीर ने हमें स्वयं के दोषों से लड़ने की प्रेरणा दी है। वह कहते हैं- स्वयं से लड़ो, बाहरी दुश्मन से क्या लड़ना? वह जो स्वयं पर विजय प्राप्त कर लेगा उसे आनन्द की प्राप्ति होगी। हर मनुष्य की आत्मा अपने आप में सर्वज्ञ व आनंदमय है, आनन्द को बाहर से प्राप्त नही किया जा सकता। आत्मा अकेले आती है और अकेले जाती है, न कोई उसका साथ देता है न कोई उसका मित्र ही बनता है। मनुष्य के दुखी होने का कारण स्वयं की गलतियां ही है, जो मनुष्य अपनी गलतियों पर विजय पा लेता है वही सच्चे सुख की प्राप्ति करता है। हर जीवित प्राणी के प्रति दयाभाव ही अहिंसा है। यदि आपने कभी किसी का भला किया है तो उसे हमेशा के लिए भूल जाना चाहिए। वहीं अगर किसी ने आपके साथ बुरा किया है तो उसे भी भूल जाना चाहिए। तभी मनुष्य शांति से जीवनयापन कर सकता है।
भगवान महावीर के विचारों को किसी काल, देश अथवा सम्प्रदाय की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। यह प्राणी मात्र का धर्म है। महावीर ने धर्म का मर्म अनेकान्त और अहिंसा बताया। उन्होंने कहा धर्म का हृदय अनेकान्त है और अनेकान्त का हृदय है समता। समता का अर्थ है परस्पर सहयोग, समन्वय, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहजता। उन्होंने कहा कि सबकी बात शान्तिपूर्वक सुनी जानी चाहिए यदि ऐसा होगा तो घृणा, द्वेष, ईर्ष्या का स्वयं ही नाश हो जाएगा। उन्होंने साधन और साध्य दोनों की पवित्रता और शुद्धि पर बल दिया। वर्तमान युग में भी महात्मा गांधी ने इसका राजनीति तक में सफल प्रयोग किया। वास्तव में आज भी भगवान महावीर के आदर्शों पर समाज को चलने की आवश्यकता है, अल्प संसाधनों में समाज खुश रहकर जीवन जी सकता है, जगत के अधिकतर साधन कष्ट देने वाले ही है, चिंता, अहंकार, लोभ से ग्रस्त करने वाले है, भगवान महावीर ने त्यागी जीवन का ऐसा आदर्श स्थापित किया जिसे मानव सभ्यता में सदैव आदर्श समझा जाएगा। १५ अक्तूबर सन ५२७ ई. पूर्व दीपावली के दिन इस युग के अंतिम चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर ने ७२ वर्ष की आयु में अपनी भौतिक देह पावापुरी में त्याग कर निर्वाण प्राप्त किया।
— मंगलेश सोनी

*मंगलेश सोनी

युवा लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार मनावर जिला धार, मध्यप्रदेश