संस्मरण

स्वामी श्रद्धानन्द जी की पुत्र-वधु और पं. इन्द्र वाचस्पति जी की धर्मपत्नी माता चन्द्रावती जी

स्मृतियों के झरोखे से-

(निवेदनः श्रीमती दीप्ति रोहतगी, बरेली वेदभाष्यकार प्रवर विद्वान आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी की दौहित्री हैं। वह बचपन में अपने नाना आचार्य जी के साथ प्रायः गुरुकुल में ही रहा करती थीं। उन्होंने उन दिनों का स्वामी श्रद्धानन्द जी पुत्रवधु माता चन्द्रावती जी से जुड़ा अपनाएक प्रेरक प्रसंग वा संस्मरण प्रस्तुत किया है। हम उनका वह संस्मरणात्मक लेख पाठकों के ज्ञानवर्धन हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं। -मनमोहन आर्य)

किसी ने सच ही लिखा है कि जिस प्रकार सूखे ईधन में अग्नि विशेष रूप से प्रविष्ट होती है, उसी प्रकार महान लोगों में हर प्रकार के गुण विशेष रूप में होते हैं। पूज्या माता चन्द्रावती जी पर यह कथन पूर्ण रूप से चरितार्थ होता था। ये माता जी और कोई नहीं अपितु स्वामी श्रद्धानन्द जी की पुत्रवधू और पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति की सहधर्मिणी थी। मेरा उनके साथ सान्निध्य अत्यन्त अल्प होते हुए भी चिरस्मरणीय है। कोई एक या डेढ़ वर्ष का सम्पर्क रहा होगा। उस समय मैं काफी छोटी थी। यही 8-9 वर्ष की मेरी उम्र रही होगी। लेकिन इतने कम समय में मैंने उनसे जो कुछ भी प्राप्त किया वह शायद ही कभी इस जीवन में विस्मृत हो सकेगा। उनके साथ बिताये क्षण, उनका चेहरा, बातचीत का ढंग आदि कुछ भी नहीं भूला है। मुझे आज भी वह सब याद है।

मेरी उनसे प्रथम भंेट अविस्मरणीय है। सम्भवतः हरिद्वार में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर अपना काव्य पाठ करने आये थे। उस कार्यक्रम में मेरे नाना डा. रामनाथ वेदालंकार जी सम्मिलित होने जा रहे थे। मैं बचपन से ही अपने नाना-नानी जी के पास ही रहती थी। तभी एक छात्र आया और बोला कि पं. इन्द्र जी की पत्नी आई हैं, वह भी वहां जायेंगी। मैंने पूछा कि पं. इन्द्र जी की पत्नी कौन है? तो पता चला कि स्वामी श्रद्धानन्द जी की पुत्रवधू। उससे पूर्व न मैंने उनको देखा था और न ही उनके बारे में कुछ सुना था। स्वामी श्रद्धानन्द जी की पुत्रवधू होने के कारण मेरे मन में उनके दर्शन की अदम्य इच्छा जागृत हो गई थी। केवल उनको देखने के लिये ही मैं कार्यक्रम में सम्मिलित होने चली गई। दूर से ही मेरे नाना जी ने दिखाया कि वो बैठी हैं पं. इन्द्र जी की पत्नी। मैं उनको देखती रही। एक अजीब सा खिचाव महसूस हो रहा था। वे मुझसे काफी दूर बैठी थीं। यह शायद मेरा सौभाग्य ही था कि कार्यक्रम समाप्त होने पर भीड़ में मैं अपने नाना जी से बिछुड़ गई और मुख्य द्वार पर खड़ी होकर रोने लगी।

तभी एकाएक कुछ लोगों के साथ माता जी अन्दर से निकलीं। मैं उनको देखकर एकदम चुप हो गई और हाथ जोड़ कर बोली-माता जी नमस्ते और फिर रोने लगी। शायद मेरी इसी बात से वे प्रभावित हुई और मेरे पास आकर बड़े प्यार से सिर पर हाथ रखकर पूछने लगी–बिटिया क्यों रो रही हो? मैंने अपने रोने का कारण बताया। तभी गुरुकुल फार्मेसी के व्यवसायाध्यक्ष डा. हरिप्रकाश जी अन्दर से निकल कर आये और उन्होंने माता जी को बताया कि यह रामनाथ जी की दौहित्री है। उन्होंने पूछा क्या नाम है तुम्हारा? मैंने सुबकते हुए बताया दीप्ति। तभी हरिप्रकाश नाना जी हंसते हुए बोले-अरे तेरे पिता जी नहीं मिल रहे तो रो क्यों रही है, खोये तो तेरे पिता जी हैं, तू तो हमारे पास खड़ी है। हम घर पहुंचा देंगे। फिर मैं हरिप्रकाश नाना जी की गाड़ी से माता जी के साथ घर आई। रास्ते में उन्होंने ढेर सारी बातें कीं। यह थी मेरी उनसे प्रथम भेंट।

उसके बाद मैं अक्सर स्कूल से लौटने के बाद या कभी-कभी छुट्टी वाले दिन उनके पास चली जाती थी। उस समय वे गुरुकुल में ही अपनी कुटिया में रहती थीं। वे मुझे बहुत प्यार करती थीं। प्रायः जब भी मैं उनके पास से आती, तो वे मुझे फूल दिया करती थीं। कभी यदि वे नहीं देती तो मैं मांग लाती थी।

एक बार की बात मुझे याद आ रही है। वह काफी अस्वस्थ थीं। शाम को उनकी कुटिया पर काफी लोगों का जमघट लगा था। अचानक मैं भी वहां पहुंच गई। वह अपनी चारपाई पर बैठीं थीं। मैं जैसे ही वहां पहुंचीं तो वह बोली-आ गई मेरी बिटिया। उन्होंने बड़े प्यार से अपने पास चारपाई पर बैठाकर बोली-मेरी जायदाद की आधी हकदार ये है। फिर हंसकर बोली-मेरे पास तो स्नेह की ही जायदाद है। मेरी समझ में उनकी बात बिलकुल भी नहीं आई और उनके कहे शब्द अक्षरक्षः रट लिए और आकर घर में नाना जी को बताया कि आज वो ऐसा कह रहीे थीं।

एक बार मुझे काफी तेज ज्वर ने जकड़ लिया। मैं कई दिनों तक उनके पास नहीं गई। एक दिन उनके जामाता पंडित धर्मवीर जी, जो इस समय आर्य वानप्रस्थ आश्रम, ज्वालापुर में रहते हैं, आये और बोले बिटिया को माता जी याद कर रही हैं। कई दिनों से वह उनके पास आई नहीं। उनके द्वारा माता जी को पता चला कि बिटिया को काफी तेज ज्वर है। उस समय वह काफी अस्वस्थ थीं। स्वयं चलने की ताकत उनमें नहीं थी। तब भी तुरन्त वह हमरे घर आईं और घंटों मेरे पास बैठकर मेरी नानी जी के साथ सिर पर ठण्डे पानी की पट्टी रखवाती रहीं। मुझे जब भी ये बातें याद आ जाती हैं तो मुझे अपने भाग्य पर नाज होने लगता है कि मुझे उनका कितना स्नेह और आशीर्वाद मिला।

उनकी मृत्यु से एक दिन पूर्व मैं उनकी कुटिया पर गई। थोड़ा अंधेरा हो गया था। मैं जब चलने लगी तब मैंने उनसे कहा। आज फूल नहीं दोगी? वह बोलीं ‘अंधेरा हो गया है। अंधेरे में फूल नहीं तोड़ते । मैं सुबह तेरे लिए फूल भिजवाऊंगी।’ सुबह 6 बजे उनके पास से कोई 3-4 फूल लेकर आया कि माता जी ने फूल भिजवाये हैं। दुर्भाग्य से उसी दिन या अगले दिन उनका देहान्त हो गया। मैं रोने लगी कि मैं भी चलूंगी उनके दर्शन को। मेरे नाना जी मुझे अपने साथ ले गये पर वहां उपस्थित किसी ने मुझे यह कह कर मना दिया कि बच्चे उनके बिलकुल नजदीक नहीं जाते हैं। मैं वहीं बाहर खड़ी रही और फिर अपनी नानी जी के साथ उनकी अमिट यादें लिये अश्रुपूरित नेत्रों के साथ लौट आई।

माता चन्द्रावती जी के भेजे अन्तिम पुष्प मेरे पास कई वर्षों तक एक डिबिया में सुरक्षित रहे और फिर वे भी उनकी तरह कहीं खो गये।

-दीप्ति रोहतगी, बरेली।