सामाजिक

खलनायकों से सीख

एक छोटी सी मुसीबत के समय ही राष्ट्र के सीने में घाव बन के उभर गए लोग रामकथा के खलनायकों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।
रामायण के नायक राम, लक्ष्मण, भरत आदि ने यदि सिखाया कि राष्ट्र के लिए जीते कैसे हैं, तो खलनायकों ने सिखाया कि राष्ट्र के लिए मरते कैसे हैं।
कुम्भकर्ण सिखाते हैं कि यदि राजा की नीतियां, उसके कार्य पसन्द न हों तब भी राष्ट्रद्रोह नहीं करते। सैनिकों पर पत्थर नहीं फेंकते, राष्ट्र में उपद्रव नहीं फैलाते… जब राष्ट्र विपत्ति में हो तो नागरिक का केवल और केवल एक ही कर्तव्य होता है, राष्ट्र की रक्षा! आंतरिक असहमतियों को बाद में भी सुलझाया जा सकता है, पर यदि राष्ट्र न रहा तो न सहमति का कोई मूल्य रह जायेगा न असहमति का… कुम्भकर्ण सिखाते हैं कि राजा से असहमति के बाद भी राष्ट्र के साथ खड़ा रहना ही धर्म है।
मेघनाद से सीखा जा सकता है पितृभक्ति! सीखा जा सकता है कि पिता की प्रतिष्ठा के लिए शीश कैसे चढ़ाते हैं। सीखा जा सकता है कि अपने देश, अपने समाज, और अपने कुल के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को पूरा कैसे करते हैं।
लंका के वैद्य सुषेण की अपने वैद्य-धर्म का पालन करना बताता है कि वैद्य की प्रतिष्ठा क्या है, और क्यों है। वैद्य यदि शत्रुदेश का हो तब भी पूजनीय है। उसके ऊपर थूका नहीं जाना चाहिए, उसके ऊपर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। यदि आप वैद्यों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, तो आप मनुष्य तो छोड़िये असुर या राक्षस कहलाने योग्य भी नहीं।
हम जिन्हें राक्षस कहते हैं, जो मनुष्यों का भक्षण करते थे, जिन्हें धर्म का ज्ञान नहीं था, उनका भी स्तर यह था कि राष्ट्र के लिए पूरा परिवार बलि चढ़ गया। किसी ने रावण को गाली नहीं दी, किसी ने लंका का अहित नहीं चाहा। इतिहास उन्हें अधर्मी भले कहे, गद्दार नहीं कहता।
जिस विभीषण को समय ने कुलद्रोही घोषित कर दिया, वह भी बार-बार कहता रहा कि मुझे राज्य नहीं चाहिए, महाराज रावण माता सीता को राम को सौंप दें और धर्म के मार्ग पर आ कर शासन करें। माता के आगे, भाई के आगे, दूत के आगे… विभीषण युद्ध में भले राम के साथ खड़े रहे, पर लंका के लिए रोते रहे…
असल में प्राचीन अखण्ड भारत ज्ञान की भूमि रहा है। यहाँ के खलनायकों का भी अपना स्तर रहा है। मानवीय दुर्गुणों के वशीभूत हो कर उन्होंने पाप भी किया है, पर धर्म से पूरी तरह विमुख नहीं हुए। राष्ट्र के साथ द्रोह की भावना भारतीय मूल की नहीं है, पूर्णतः आयातित है।
भारत की परम्परा रही है सीखने की। बुजुर्गों ने सिखाया है कि ज्ञान यदि कुकर्मी के पास भी हो तो उससे लेने में कोई दोष नहीं। जो लोग किसी भी व्यक्ति, मान्यता, या समुदाय के बहकावे में आ कर राष्ट्र से द्रोह कर रहे हैं, वे इस योग्य तो नहीं हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को समझ सकें, पर उन्हें रावण के कुल से अवश्य सीख लेनी चाहिए।