कविता

उम्मीद

यह दुनिया पहले इतनी बेआवाज तो न थी
चारों तरफ इतना सन्नाटा क्यों पसरा है
खामोशी ही खामोशी
वो कानफोड़ शोर कहां खो गया
कारो के वो भोंपू
मेट्रो के चक्कों की आवाजें
स्कूल की घंटियां
मंदिरों की आरती की आवाजें
लोगों का वो जमघट
सब कहां खो गए
लगता है कुछ क्षणों के लिए रुक गया हो वक़्त
लेकिन वक़्त रुकता नहीं
पतझड़ जाएगा बसंत आएगा
फिर खिलेंगे नए फूल बगिया में
चमन गुलज़ार होगा
फिर सुनाई देगा वहीं कारो का भोंपू
मेट्रो के पहियों की आवाज
स्कूल की घंटियां बजेगी
घंटे बजेंगे मंदिरों के
आस न छोड़ना बस तू
हौसला अपना बरकरार रखना
हर रात के बाद सुबह आती है
बस इतना ख्याल रखना तू

ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020