कविता

प्रारब्ध

जो मिला प्रारब्ध से मिला
क्यों है इसका गुरूर
न हो जो यकीं
नजरें उठा देख अपने आस पास
शायद कुछ रहे होगें अच्छे करम
जो पाले हुए हैं एक गुमान
तपती धूप में बहाते हुए अपने स्वेद को
तरस रहा है एक ठंडी छांव को
लेटाकर अपने नन्हें को सुला रहा
दो वृक्षों के तने बनाए झूले में दे दे के थपकियां
इस जेठ बरसती आग में
हम बैठे है अपने घर के अंदर
चलाकर शीत यंत्र को
झेल रहा वह उधर खुले गगन में सूरज के प्रचंड ताप को
बतलाओ यह प्रारब्ध नहीं तो और क्या है

ब्रजेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020