कविता

सुनके ज़्यादा भी करोगे तुम क्या

सुनके ज़्यादा भी करोगे तुम क्या,
ध्वनि कितनी विचित्र सारे जहान;
भला ना सुनना आवाज़ें सब ही,
चहते विश्राम कर्ण-पट देही !
सुनाया सुन लिया बहुत कुछ ही,
सुनो अब भूमा तरंग ॐ मही;
उसमें पा जाओगे नाद सब ही,
गौण होएँगे सभी स्वर तब ही !
राग भ्रमरा का समझ आएगा,
गुनगुना ब्रह्म भाव भाएगा;
सोच हर हिय का ध्यान धाएगा,
कान कुछ करना फिर न चाहेगा !
जो भी कर रही सृष्टि करने दो,
सुन रहे उनको अभी सुनने दो;
सुनो तुम उनकी सुने उनको जो,
सुनाओ उनको लखे उनको जो !
गूँज जब उनकी सुनो लो थिरकन,
बिखेरो सुर की लहर फुरके सुमन;
बना ‘मधु’ इन्द्रियों को उर की जुवान,
रास लीला में रमे ब्रज अँगना !

✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’