हास्य व्यंग्य

रामखिलावन की बैचेनी और मिल गया समाधान

आज वे मन ही मन बहुत कुढ़क रहे थे।मन ही मन उन्हें गालियाँ भी दे रहे थे।वे बुदबुदा भी रहे थे कि-” आज तो तुम बहुत खुश होंगे।तुम्हारे मन की जो हो गई है।मुझे दड़बे दाखिल होना पड़ा है।अभी कहीं मंचों पर नहीं हूँ,शोक सभाओं में नहीं हूँ,समाचारों में नहीं हूँ तो तुम्हारी बल्ले-बल्ले हो गई है!इतनी ईर्ष्या, इतना द्वेष!आश्चर्य है।”
फिर उनके मन में आया कि ये भाई लोग ये क्यों नहीं सोचते कि जो भी पाया है वह अपनी काबिलियत के बल पर ही तो पाया है।लोग पीठ पीछे ताना देते हैं कि योग्यता से ज्यादा फितरत,जोड़तोड़ और मक्खन पॉलिसी के बल पर इतना सब कुछ हांसिल किया लेकिन यह तो विरोधी खेमे की सोच में से निकलता हुआ धुआं भर है।कहाँ इतनी उपलब्धि हासिल करना सबके बस की बात है।फिर उन्होंने अपने दिल को शांत किया और दिमाग से सोचने लगे
वे कुछ सोचना शुरू कर ही रहे थे कि फिर भीतर ही भीतर कुढ़कुढ़ानेलगे,कुनबुनाने लगे,भुनभुनाने लगे।उनके मन में आया कि आखिर घरवास की भी एक हद होती है।बिना सजा के यह कारावास!वनवास मिला होता तो यूं ही काट लेते क्योंकि आजकल जंगल में भी मंगल है।हाँ ,नेट की समस्या जरूर वन क्षेत्र में आ जाती है जिससे प्राब्लम आ सकती हैं लेकिन फिर भी इधर-उधर होने पर सिग्नल खेंच ही लेते हैं किन्तु यहाँ तो घरवास मिला है, वह भी बीवी-बच्चों की पहरेदारी में।कभी सोचा नहीं था कि यह इतना लम्बा खिंचेगा, इक्कीस दिन के बाद फिर उन्नीस दिन, खुदा खैर करे!अभी तक तो वे यही सोच रहे थे कि चलो इक्कीस दिन बाद ठीक उसी तरह से दौड़ लगा देंगे जैसे खूंटे से बंधी गाय छुटते से ही दौड़ लगा देती है।
इधर घर में पड़े-पड़े पेट की अरोड़-मरोड़ से तो उन्होंने जैसे -तैसे राहत पा ली और उसमें भी बाबा रामदेव का ज्ञान कुछ-कुछ काम आ गया लेकिन दिमागी अरोड़-मरोड़ के लिए किसी बाबा का नुस्खा ही नहीं मिल पा रहा था।इसके अजीर्ण का कैसे इलाज करें।लॉकडाऊन ने ऐसी फजीहत कर दी कि एक तरफ कुआ तो दूसरी तरफ खाई।कोरोना से गलबहियाँ करना नहीं है और उधर अगले दो-तीन महीनों तक के सारे फिक्स प्रोग्राम चौपट,कहीं मुख्य अतिथि तो कहीं अध्यक्षता।सभी कार्यक्रम धरे के धरे रह गए, आखिर कितनी जुगाड़-पानी बैठाया था।
बात अंदर की थी,बस रामखिलावन ही जानते थे कि अभी तक कई जगह पुरानी रचनाएँ अदल-बदल कर अपना सिक्का जमा लिया था लेकिन अभी घर-घुस्सू बने रहने से मार्केटिंग खराब हो रही थी।बीवी-बच्चों को न जाने क्यों उनसे डर लगता है।एक बार उनके मित्र पण्डित जी ने बताया था कि वे आपसे नहीं आपकी रचनाओं से डरकर दूर भागते हैं।तब उन्हें बहुत गुस्सा आया था,सोचने लगे कि बाहर तो बाहर,घर के लोग भी!
बहरहाल, अभी घरवास के दौर में बहुत कागज काले कर दिए थे,फेसबुक, वाट्सएप, ट्वीटर पर तो छा ही गए थे जैसे लेकिन उसमें दिखाई देने वाले अंगुठे भी चिढ़ाते से लगते थे।ऐसे में रामखिलावन को एक आइडिया सुझाई दिया।उन्होंने सोच लिया कि लॉकडाऊन का तो वे पूरी तरह से पालन करेंगे।सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखकर भी वे अपनी नजदीकियों को ऑनलाइन भूना लेंगे और इसीलिए अब उन्होंने ऑनलाइन प्रोग्राम सेट कर कविता पाठ,गजल पाठ,व्यंग्य पाठ शुरू कर लोगों को जोड़ लिया है।यहाँ भी वे प्रमुख बने ही हुए हैं और उनकी अरोड़-मरोड़ बहुत हद तक शांत हुई है।उन्होंने विरोधी खेमे को अंगुठा तो दिखा ही दिया है लेकिन फिर भी उन्हें अभी अफसोस इस बात का जरूर है कि शोकसभा के लिए अभी ऑनलाइन प्रोग्राम का जुगाड़ नहीं जम पा रहा है।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009