कविता

मजदूर

कभी इंटें उठाता।
 कभी तसले ,
मिट्टी  के भर -भर ले जाता।
 पीठ पर लादकर ,
 भारी बोझे,
 वह चंद सिक्कों के लिए ,
एक मजदूर ,
कितना मजबूर हो जाता।
ना सर्दी ,
ना गर्मी से घबराता।
मजबूरी का ,
फायदा ठेकेदार उठाता।
इतने पैसे ……नहीं मिलेंगे।
मन मारकर ,
जो देना है ……….!!!!!!!!
दे दो मालिक ,
कहकर चुप रह जाता।
 मजदूर अपनी,
 मेहनत का,
 आधा हिस्सा भी ना पाता।
 कितना मजबूर होकर रह जाता।‌।
— प्रीति शर्मा “असीम”

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- aditichinu80@gmail.com