कविता

जीने का हक़

मैं  भी औरत हूँ
क्या मुझे भी जीने का हक़ है
खुद का अस्तित्व मिटाकर
किसी का घर बसाती  हूँ
घर की सारी जिमेदारियो को उठाती हूँ
हर युग में मुझे ही सारी परीक्षा देनी पड़ती है
क्या मुझे भी जीने का हक़ है
ममता की मूरत हूँ ,
सबका ध्यान रखती हूँ
फिर भी मेरे हर अरमान कोदबा  दिया जाता है
मुझे माँ की गुड़िया समझा जाता है
क्या मुझे भी जीने का हक़ है
मेरा हर कदम पर अपमान  किया जाता है
मुझे हर समय छला गया
मेरे हक़ में मुझे कुछ नहीं मिला
कब तक बेड़िया पैरों में पड़ी रहेगी
क्या मुझे जीने का हक़ नहीं है
मैं भी जीना चाहती हु
मैं अपना सम्मान चाहती हु
मैं आसमान में उड़ना चाहती हु
बेड़ियों को तोड़कर उड़ जानाचाहती  हु
मुझे भी जीने का हक़ है

— गरिमा

गरिमा लखनवी

दयानंद कन्या इंटर कालेज महानगर लखनऊ में कंप्यूटर शिक्षक शौक कवितायेँ और लेख लिखना मोबाइल नो. 9889989384