कथा साहित्यकहानी

दंशरोज (कहानी)

कागज….. स्त्रीबिम्ब….. न-न-न !

कैनवास…. पुंबिम्ब….. न-न-न !!

लेकिन यहाँ अंतर फ़ख़्त देह का नहीं, विचारों का भी है !
कागज के रूप में नायिका उन आकांक्षाओं कोजीवित रखी हुई है, जिनमें विचारों का संवहन जारी है । कागज मर्त्य नहीं, अमर्त्य है । वह अमृत है और स्त्रीबिम्ब के सापेक्षत: अमृता भी है, किंतु उनमें दंश की भावनाएँ हिलोरे ले रही हैं– यही तो आश्चर्य है, कागज के स्त्रीबिम्ब में प्रयुक्त होने की भाँति !

कोरा कागज दंश ही तो है, चाहे उसमें विष उड़ेलिये या…. ! परंतु कागज के बतौर स्थापित हुई ।

….. कैनवास का परिचय किस रूप में दूँ ? वह नायक है । उसमें नायकत्व है या नहीं—- कथारम्भ में ही स्पष्ट होना संभव नहीं ! इसके लिए इंतज़ार करने होंगे—- कथांत के लिए । कैनवास भी कागज़ से जुड़े होते हैं, किसी न किसी भाँति ! दोनों लगभग एक अर्थ लिए हैं । कैनवास भी रोज-रोज दंश झेल रहा है ।

रोज-रोज यानी इमरोज । तभी तो वे अपनी चाँद के पास पहुँचते-पहुँचते चाँद को ही विलीन पाया । पता नहीं, कैनवास का चंद्रस्पर्श हो सकी या नहीं, किंतु सच यह भी है कि कागज और कैनवास कोरा होकरभी साथ-साथ रहे, अलग-थलग नहीं !

अमृता माने अमृता शेरगिल ?
अमृता माने अमृता सिंह ?
अमृता माने अमृता प्रीतम ?

अमृता यानी सबकुछ !
अमृता यानी कुछ भी नहीं !
अमृता बिम्ब है, प्रतीक है । संज्ञा नहीं, सर्वनाम नहीं; विशेषण भी नहीं, संबोधन हो सकता है । आखिर ‘कारक’ के बाहर कुछ भी तो नहीं होती !

कल्पना साकार, कल्पना निराकार । अमृता भी इन दोनों में समाहित । इन दोनों के बाहर भी । यह तो दंश-प्रकृति को क्रियार्थक बनाना ही तो है । कागज पर लिखी या उकेरी कविताएँ भारत विभाजन के दंश को ही अभिव्यक्त कर रही होती है….

किस अमृता की बात हो रही है….. बिम्ब की या कवयित्री की; किंतु दृष्टिमूलक अवधारणा फ़ख़्त कागज की है, दंश की है । प्रति-अप्रति के सन्नद्ध !

दंश का रोज-रोज उभरना । कागज पर स्याही को लसेरते-पैठते, उस कैनवास तक आ पहुँचता है, जहाँ स्याही ने रंग का रूप धर लिया है तथा लेखनी तूलिका बन गई है….

रोज-रोज का मतलब गाँधी फ़ीरोज़ !
रोज-रोज का मतलब सरदार इमरोज़ !
रोज-रोज का मतलब वुडरोज !
रोज-रोज का मतलब अपना ‘रोज’ !
रोज यानी हिंदी शब्दकोश में प्रतिदिन !
रोज यानी अंग्रेजी शब्दकोश में गुलाब !

जो भी मानिए, क्योंकि ‘माना’ ही जाय– ऐसी कोई बाध्यता नहीं है ! फिर भी रोज-रोज दंश झेलने पड़ेंगे ही, क्योंकि गुलाबी संस्कृति में फ़ख़्त काँटे ही तो बिछी है।
तभी तो अमृता की मृत्यु हो जाती है, किंतु उनकी दंश रह जाती है, क्योंकि इमरोज़ का जीवित रहना अवधारणामूलक सच है। उस दंश को सजीव-निर्जीव के चक्रव्यूह में फँसाये रखने के लिए यानी दूध का उफनना यह इंगित करता है कि तूफान का मंजर पर्दे पर साफ-साफ दृष्टिगोचित होने लगा है ।

अमृता का जाना ‘कागज’ का ही जाना है, क्योंकि इसे एक युग का अवसान माना गया, एक पहेलीनुमा जीवन का अंत माना गया, परंतु कागज के अनंत पृष्ठ अभी भी खाली है, वहीं कैनवास भी साफ है इमरोज़ का । कैनवास में चित्र उकेरे जाते हैं, किंतु अब उनपर कविताएँ उतारी जा सकती है!

(क्रमश:)

डॉ. सदानंद पॉल

एम.ए. (त्रय), नेट उत्तीर्ण (यूजीसी), जे.आर.एफ. (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), विद्यावाचस्पति (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर), अमेरिकन मैथमेटिकल सोसाइटी के प्रशंसित पत्र प्राप्तकर्त्ता. गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकॉर्ड्स इत्यादि में वर्ल्ड/नेशनल 300+ रिकॉर्ड्स दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: 'नेशनल अवार्ड' प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 12,000+ रचनाएँ और संपादक के नाम पत्र प्रकाशित. गणित पहेली- सदानंदकु सुडोकु, अटकू, KP10, अभाज्य संख्याओं के सटीक सूत्र इत्यादि के अन्वेषक, भारत के सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अर्हताधारक, पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.