धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

भूत प्रेत की हानिकारक कल्पना

कुछ दिन पहले मैं एक धार्मिक हिन्दू से बात कर रहा था । हमारी चर्चा का विषय धर्म, परमेश्वर और अलग अलग मान्यताओं के बारे में था कि इसमें भिन्नता कैसे हो सकती है। बातचीत के दौरान उसका प्रश्न था ‘यदि आप परमेश्वर पर विश्वास करते है तो आप भूत और जादू में भी यकीन करते होंगे‘। बुद्धिमान वैज्ञानिक ढूंढने पर भूत को नहीं खोज पाते परन्तु भयभीत मनुष्य उसे घर में भी देख लेता है।

दुर्भाग्य से बाल कहानियों की पत्रिकाएँ जैसे नन्दन, चन्दामामा और डायमण्ड कोमिक्स इस तरह की अवैज्ञानिक जानकारियां परोसते हैं कि बालमन पर कुप्रभाव पड़ता है. कादम्बरी, यन्त्र मन्त्र तन्त्र, सच्ची कहानियाँ आदि अनेको पत्रिकाएँ इस अंधविश्वास को बढ़ावा देती हैं। इस सम्बन्ध मे बहुत सी फिल्मे भी बनी हैं। टेलीविज़न के धारावाहिक भी बने हैं। पता नहीं सेंसर बोर्ड कभी इन पर कंट्रोल क्यों नहोई करता। हमारी पाठ्य पुस्तकों मे निरर्थक जानकारी भरी पड़ी है परंतु भूत प्रेत जैसी मान्यता पर कोई विवरण नहीं है। अमेरिका के प्रायः किसी युवा के सामने यदि आप ‘जादू‘ शब्द बोलते हैं तो सबसे पहले उनके मन में जो छवि उभरेगी वह हैरी पॉटर की होगी। एक किताब, उपन्यास, एक फिल्म, या जो भी अवास्तविक हो और जिसे काल्पनिकता से मनोरंजन के लिये ही बनाया गया हो। यद्यपि अमेरिका मे भी मैजिक हीलर ईसाई मिशनरी हैं, वे अपना स्टेज शो करके जादुई इलाज का दावा भी करते हैं पर 80% से अधिक अमेरिकन उन पर विश्वास नहीं करता।

भारत में थोड़ी भिन्नता है। ऐसा नहीं है कि बच्चे ही भूत और जादू पर विश्वास करते है, बल्कि वयस्क भी मानते है नतीजतन यह डर सिर्फ बच्चों में ही नही अपितु वयस्कों में भी है। हमेशा की तरह धर्म ने लोगो में इस डर को स्थापित कर दिया है क्योकि यह डर लोगों को नियंत्रित करने में मदद करता है। भूतो की कहानियां यह भी बताती है कि ऐसे खतरे आये तो धर्म यह सलाह देता है तब अनुष्ठान व कर्मकाण्ड आदि करना चाहिए।दुर्भाग्य से वयस्कों ने यह डर अपने बच्चों को भी सिखा दिया है। अधर्म गुरुओं ने भी इसे बढ़ावा दिया है. रामपाल, राधास्वामी, श्रीराम शर्मा जैसे अनेक गुरु इस अंधविश्वास को बढाते हैं। भारत मे अधिकांश धर्मगुरुओं की इस विषय मे कोई स्पष्ट मान्यता नहीं है। जब भी पूछिए वह प्रश्न को टाल जाते हैं। इस्कॉन, स्वामी नारायण, भागवत कथा वाचक, रामायण कथा वाचक, ब्रह्मकुमारी, सच्चा सौदा, निरंकारी, कबीर पंथी, शैव, वैष्णव, श्वेताम्बर व दिगम्बर जैन व बौद्ध आदि इस विषय पर स्पष्ट राय नहीं रखते। आर्य समाज को छोड़ कर शायद ही कोई मान्यता हो ज़ो जीवात्मा और परमात्मा को तो मानते हैं परंतु भूत प्रेत को नहीं।

माता-पिता अपने दरवाजो पर कोई वस्तु लटका देते है जिससे बुरी आत्मा प्रवेश न कर पाये और वह बच्चो को यह सिखाते है कि हमारी तकिये के नीचे एक चाकू है जिससे भूत डरते है। जब आप अपने बच्चे को यह बताते कि भूतों के खिलाफ हमें क्या करना चाहिये, तब वास्तव में आप बच्चे को प्रोत्साहित कर रहे होते है कि भूत सच में होते है। एक भयभीत युवा किसी भी कार्य को करने से पहले यह अवश्य ध्यान देता है कि उसने इससे बचने के सारे उपाय कर लिये है या नही, क्योकि यह भय पहले से ही उत्पन्न किया गया है। आप अपने बेटे व बेटी को उन लोगो पर विश्वास करना सिखाते हैं जो जादू, भूत, राक्षस और बुरी आत्माओं के बारे में बात करते हैं। यह तथ्य है और बताने में और भी बुरा लगता है कि उच्च शिक्षित लोग भी इस भय और भ्रम में रहते है। वे अपने बच्चों को विज्ञान व चिकित्सा के बारे में बताते है पर साथ ही वह उनमें डर भी सिखाते है। अपने बच्चों को किसी काम से रोकने के लिये वे यह सिखाते है कि यह मत करो वरना भूत आ जायेगा! वे अपने बच्चों इस बात से भयभीत करते है कि अगर वह अच्छा व्यवहार नही करेंगे तो उन्हें उस गोदाम में बन्द कर दिया जायेगा, जिसमें एक भूत रहता है। यहां तक कि वो उस भूत का एक डरावना नाम भी खोज लेते है जिससे कि वे अपने बच्चों को डरा सकें। आज भी लोग ऐसी बातों पर विश्वास करते हैं और अपने बच्चों को भी सिखाते हैं। ऐसी प्राचीन कहांनियों से आप एक ऐसी विकलांग पीढ़ी पैदा कर रहे है जो उनमें झिझक व अनावश्यक भय को जन्म देती है।

महर्षि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश द्वितीय सम्मुलास में लिखते हैं —

जो-जो विद्या, धर्मविरुद्ध भ्रान्तिजाल में गिराने वाले व्यवहार हैं उन का भी उपदेश कर दें जिस से भूत प्रेत आदि मिथ्या बातों का विश्वास न हो।

गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन्।
प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुद्ध्यति॥मनु॰॥

अर्थ— जब गुरु का प्राणान्त हो तब मृतक शरीर जिस का नाम प्रेत है उस का दाह करनेहारा शिष्य प्रेतहार अर्थात् मृतक को उठाने वालों के साथ दशवें दिन शुद्ध होता है। और जब उस शरीर का दाह हो चुका तब उस का नाम भूत होता है अर्थात् वह अमुकनामा पुरुष था। जितने उत्पन्न हों, वर्त्तमान में आ के न रहें वे भूतस्थ होने से उन का नाम भूत है। ऐसा ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त के विद्वानों का सिद्धान्त है परन्तु जिस को शङ्का, कुसंग, कुसंस्कार होता है उस को भय और शंकारूप भूत, प्रेत, शाकिनी, डाकिनी आदि अनेक भ्रमजाल दुःखदायक होते हैं।

देखो! जब कोई प्राणी मरता है तब उसका जीव पाप, पुण्य के वश होकर परमेश्वर की व्यवस्था से सुख दुःख के फल भोगने के अर्थ जन्मान्तर धारण करता है। क्या इस अविनाशी परमेश्वर की व्यवस्था का कोई भी नाश कर सकता है? अज्ञानी लोग वैद्यक शास्त्र वा पदार्थविद्या के पढ़ने, सुनने और विचार से रहित होकर सन्निपातज्वरादि शारीरिक और उन्मादादि मानस रोगों का नाम भूत प्रेतादि धरते हैं।

स्वामी दयानन्द का सन्देश कितना व्यावहारिक है। टीवी चैनल, नाटक, फिल्मों आदि ने भूत जैसे अंधविश्वास को खूब बढ़ावा दिया हैं। आईये हिन्दू समाज को भूत आदि अन्धविश्वास से बचाने के लिए इस सन्देश को फैलाये।

— डॉ संजय कुमार