कविता

बड़ी दूर थे तुम

‌जी चाहा कि पुकार लूं,
पर क्या करते
बड़ी दूर थे तुम ॥

आँखों में आकाश लिए
इच्छाओं का पाश लिए
कुछ करने की कोशिश में
बिके हुए अवकाश लिए

मशरूफ थे या
मजबूर थे तुम
फुरसत से मेरी
बड़ी दूर थे तुम ॥

अपनी ही क्रीड़ाओं में
सुखशोधित पीड़ाओं में
घिरे हुए नटनागर से
मुँहबोली ‘मीराओं’ में

खुद पर रीझे
मंसूर थे तुम
जद से मेरी
बड़ी दूर थे तुम ॥

— समर नाथ मिश्र