लघुकथा

समय-समय का खेल

एक दिन साधारण वायरस को रास्ते में मिल गयी कोरोना। उसने पूछा “क्या हाल है बड़ी बी? काफी दिन हो गए तुम्हें अब भारत में। अब आगे क्या विचार है? कितने दिन और रहोगी यहां पर? कुछ हमारा भी सोचो। अगर तुम ही अपने पैर पसार कर बैठी रहोगी तो हमारे जैसी छोटी बहन का क्या होगा?”
“तुम अब जाओ यहां से, अभी मेरा समय चल रहा है। थोड़ा सबक सिखा , मैं यहां से प्रस्थान कर लूंगी। सब अपने परिवार को भूल सिर्फ पैसे के पीछे पगला ग‌ए थे। देखो न कितने वृद्धाश्रम बन ग‌ए हैं यहां।”
” हां यह बात तो सोलह आने सच है बड़ी बी। मुझे तो अब डर लगने लगा है कि अगर इन दो पैर वाले जीव को ज्ञान आ गया तो मेरा सफाया निश्चित है। तुम तो मेरे पैरों पर कुल्हाड़ी मारने आ ग‌ई हो। ऐसे तो तुम मेरी दुश्मन हुई।”
“अब चाहे जो समझ मैं तो अपना मकसद पूरा करने के बाद ही जाऊंगी। अब यह तो इन पर निर्भर करता है कि इन्हें मुझे कितने दिन अपना मेहमान बनाना है!”
“चलो तो मैं चलती हूं, तुम इन्हें सबक सिखाओ। वैसे एक बात कहूं बुरा मत मानना, जिस देश भारत में तुम आ ग‌ई हो वहां पर तुम्हारी ज्यादा चलने वाली नहीं है। यहां के लोग बहुत समझदार हैं। घरेलू उपायों से ही तुम्हें दूर भगा देंगे। मुझे शायद इस साल अपने पर फैलाने का मौका ही न मिले।” 
दोनों चिन्ताग्रस्त हो अपने-अपने रास्ते चल पड़ती हैं…

— नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक