कविता

दर्पण_की_अदाकारी

ऐ दर्पण कैसे शुक्रिया अदा करूँ मैं तेरा,
मुझे खुद से ही रूबरू कराता है तू,
जब भी आता हूँ मैं सामने तुम्हारे,
मुझे खुद में होने का एहसास कराता है तू।
गर तू न होता मेरे जीवन में,
तो मैं कैसे खुद को देख पाता,
कैसे अपनी ही आँखों में छिपे,
अपने प्रियतमा का चेहरा ढूंढ पाता।
तू ही तो सच्चा साथी है ऐ दर्पण,
जो सच को सच ही दिखलाता है,
तेरे सम्पर्क में ही आकर ऐ दर्पण,
मुझे हक़ीक़त का पता चल पाता है।
मेरे वर्तमान अकेलेपन का साथी है तू,
मेरे जीवन का है एक अभिन्न हिस्सा,
तुझसे गुफ़्तगू करके ऐ दर्पण,
अक्सर मेरा मन हो जाता है हल्का।
बस एक छोटी सी गुजारिश है ऐ मेरे दर्पण,
मन में उठी है एक छोटी सी लालसा,
बस कभी एक बार ही सही दिखा दे मुझे,
अपने पटल पर मेरे प्रियतमा का चेहरा।
वो अक्सर कहती है मुझसे अकेले में,
मेरी आँखों में उसे अपना चेहरा है दिखता,
बस इसी कल्पना को सच कर दे एक बार ऐ दर्पण,
बस दिखा दे कभी मुझे अपने प्रियतमा का चेहरा।
✍बिप्लव कुमार सिंह

बिप्लव कुमार सिंह

बेलडीहा, बांका, बिहार