शिव वंदना
अनादि भी अनंत भी, असीम है विराट है
शिवे धड़ंग नंग है, भुजंग भी ललाट है
त्रिनेत्र शंभु भाल में, सुभाष भस्म अंग है
किरीट चंद्र है बना, जटा पवित्र गंग है
भगीरथी प्रचंड को, स्वयं शिखा लपेट के
धरा बची चपेट से, धरा नदी समेट के
अघोर है सुनेत्र है, सुनील नीलकंठ है
पिनाक ले खड़ा हुआ, त्रिशूल हस्तकंट है
कपाल काल का लिखा, सखा वही मिटा सका
त्रिकाल काल से परे, कला समस्त जीव का
अभूत भी अपूर्व भी, भविष्य भी वही सखा
अगम्य गम्य काल की, न थाह कोइ पा सका
अकार भी उकार भी, मकार ओमकार भी
निशब्द शून्य भी वही, प्रचंड मेघ रार भी
सजीव निर्जिवे वही, शिवा वही शिवी वही
सखा उसे भजो तुमी, समस्त भूत में वही