प्रकृति का दण्ड
प्रकृति का दण्ड
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हमनें खूब लुटा खसूटा प्रकृति को
पर वोह मौन रही
समझ अपनी संतति खामोश रही
सोचा बच्चें हैं
नादान है
सुधर जाएंगे
यह सोच
हमारी हर गलती को सहन
माफ किया
पर किसी चीज की
अति भी होती है
हम न सुधरे
और उद्दंड हुए
जितना नोच सके
लगे नोचने उसको
फिर भी वो दयालु
देती रही हर बार
मौके पे मौके
होती है धैर्य की भी इक सीमा
टूटता जब धैर्य है
तांडव रूप धर लेता है
कभी अंफान
कभी निसर्ग बन
तबाही मचाता है
अभी तो सारी दुनिया में
महामारी बन के आया है
अब बार बार
भूकंप के झटके दे
हमको इशारे कर रही
बस बहुत हुआ
अब थम जा
अगर नहीं सुधरे अब भी
तो फिर हो जाओ
खुद के विनाश को तैयार
*ब्रजेश*