लघुकथा

मानवता

रामू रिक्शा लेकर घर से बाहर निकला ही था कि पीछे से पत्नी चिल्ला उठी।अब इस चिल्ल-चिलाती धूप में रिक्शा लेकर कहाँ जा रहे हो?बाहर बहुत गर्मी पड़ रही है।सांझ को चले जाना।गर्मी में लू लग गई तो बीमार पड़ जाओगे।समझतें क्यों नहीं हो तुम?
अरी, चुपकर कब तक इस कोरोना से डर कर रहूँगा?घर में तो भूखे मरने की नौबत आ गईं है।वह पत्नी को चिल्लाता छोड़ कर चल दिया।पत्नी भयभीत नज़रों से उसे जाता देख रही थी।
रामू को दूर-दूर तक कोई सवारी दिखाई नहीं दे रही थी।वह बार- बार तपते सूरज की तरफ देख रहा था।शायद भगवान से कह रहा था कि तेरी तपिश की आग तो सह लूँगा, पर पेट की आग कैसे सहूँगा?
तभी सामने से सवारी ने उसे आवाज लगाई।भैया, बाजार तक चलोगे।जी मैडम।कितने रुपए लोगे,जितने आप ठीक समझो दे देना?
सवारी ने रिक्शा में बैठते ही छतरी खोल ली।आधी छतरी उसने खुद पर ढक ली और आधी रिक्शा वाले के सिर पर।
वह एक दुकान पर रुक गई।उसने दुकान से एक मास्क,
अंगोछा,पानी की बोतलऔर घर का कुछ राशन खरीदा।वह दोबारा रिक्शा में बैठ गई, वापिस चलने के लिए।
वह जहाँ से चली थी,वहीं पर रुक गई।उसने रिक्शा वाले को सौ रुपये दिए।उसने मैडम का धन्यवाद किया।वह अपनी छतरी को लेकर चल पड़ी।रामू चिल्लाया,मैडम आपका समान।मैडम ने इतना ही कहा,ये सब आपके लिए है।
रामू का चेहरा खिल उठा।वह मन ही मन कह रहा था,यही तो सच्ची मानवता है,जो एक- दूसरे का दुःख बिना बताए ही समझ जाते हैं।वह सिर पर अंगोछा, मुहँ पर मास्क लगाए
दूसरी सवारी ढूंढने निकल पड़ा।
— राकेश कुमार तगाला

राकेश कुमार तगाला

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