कहानी

तारों वाली रात

आज जब आधा, पेट खाना खाकर ढीली चारपाई पर लेटा तो सहसा उसकी निगाहें आसमान पर जा टिकी तारों से भरे आसमान में कुछ ढूंढ रहा हो। बचपन के वो दिन याद आए जब वह तारों को जोड़ -जोड़ कर उनका शेर, भालू, हाथी, घर और भूत बनाया करता था।
आज शायद फिर वह तारों में अपना बचपन तलाश रहा है। एक एक तारा मानों उसकी जिंदगी के एक-एक दिन का साक्षी हो। वह उन दिनों को याद करता है। जब उसे सिवाय खेलने खाने और अपनी बात मनवाने के लिए नाराज हो जाना यही उसकी दिनचर्या में शामिल था।
घर का खर्च कैसे चलता है, पापा की आय कितनी है, मां जोड़-तोड़ कर कैसे निभाती है, इन सब बातों से उसे कोई सरोकार नहीं था। सरोकार था, तो बस भूख लगी है। मां जल्दी खाना ना मिलने पर छोटे भाई बहनों की पिटाई हो जाती, तो कभी सारे मिलकर मां के पीछे पड़ जाते ‘मां खाना दो, अभी तक बनाया क्यों नहीं’ और मां रोज की तरह ‘जब भूख लगती है तभी घर की याद आती है’ कहकर खाना देने चली जाती।
करवट लेकर दूसरी तरफ मुंह किया तो उनकी नजर एक और तारे पर पड़ी उसे याद आया जब पहली बार उसने मां -पापा को झगड़ते हुए सुना था इतना खर्च कहां हो जाता है ऐसे में घर का गुजारा कैसे चलेगा ।(पापा ने कड़क के स्वर में कहा)
मां डरी सहमी सी बोलती सब बच्चों में ही तो, सच कितनी सादी थी। मां को कपड़ों, बनने -संवरने का कोई शौक नही था। सभी से परे माथे पर कभी-कभार बिंदी ही तो लगाती थी। फिर भला बच्चों के सिवा पैसे कहां खर्च कर आती।
ठीक है, मैं देखता हूँँ। इतना खर्च कैसे होता है। ठीक है तुम खुद करके देखो।
खर्च होने की चर्चा को वह तब ठीक-ठाक समझ नहीं पाया था । पापा मां को तो खर्च कम करने को कहते, लेकिन जब उनके रिश्तेदार या मित्र आते, तो घर में महंगी-महंगी चीजें खाने को लाते हैं। यह अंतर उसका बाल-मन समझ नहीं पाता था।
उसने तारों को जोड़ते हुए पाया कि तारों का एक जाल सा बना है ऐसा ही एक जाल उसके भीतर भी था। अब वह महसूस करने लगा था आए दिन वह कुछ ना कुछ सुन और समझ रहा था बिजली का बिल इतना आ गया। चार-चार पंखे चलते रहते हैं। टीवी तो बंद ही नहीं होता पानी चल रहा है। तो चल रहा है अभी तो राशन आया था महीने से पहले ही खत्म हो गया। सारा खा गए आदमी हो या गज, कुछ ना छोड़ना बस चले तो खिड़की दरवाजे तक खा जाए। फिर कॉपी खत्म कर दी, अभी कल ही तो लाकर दी थी मैं इतने पैसे कहां से लाऊं।
ये बातें वह अक्सर सुनता था । इन बातों के एहसास ने उसे अधूरे बचपन से प्रौढ़ता की और कब धकेल दिया उसे भी पता ना चला।
अब वह सोचने लगा था मुझे रोज-रोज मां को किसी भी चीज लेने के लिए तंग नहीं करना है। जो चीजें मेरे पास हैं वह बहुत हैं अब वह मां से वही चीज मांगता जो बहुत ही जरूरी होती, उन बातों से उसके दिल में बैठ गया कि पापा के पास पैसे कम है। हमें ज्यादा पैसे खर्च नहीं करना चाहिए। हमारे कम खर्च करने से झगड़ा भी कम होगा।
करवट बदलते ही उसकी नजर दूर आसमान में तैरते बादलों के बीच एक अकेले तारे पर पड़ी। जो दिख तो रहा था या फिर छुपने की कोशिश कर रहा था।
उसके दिमाग में एक बात कौंधी थी उसके दिल ने उसके दिमाग से पूछा था क्या सच हमारे पास पैसे नहीं क्या हम गरीब हैं या ठीक-ठाक या ज्यादा अमीर नहीं है यह बातें वह अक्सर सोचने लग गया था लेकिन कभी-कभी उसका दिमाग यह सच है मान नहीं पाता वह अक्सर देखता जब कभी पापा के फ्रेंड्स या उनके रिश्तेदार आते हैं ।तब तो पापा कितना खर्च करते हैं ।कितना कुछ घर पर लाते हैं लेकिन जब मां किसी चीज के लिए वह भी जरूरी चीज तो कितनी बातें सुना कर लाते हैं।
फिर उसका दिल और दिमाग इन बातों पर अपने अपने विचार रखते हैं… हूं कहते हैं पैसे नहीं हैं पैसे नहीं है तो यह सब कैसे आता है। झूठ है ….पैसे है ….हमें कहते हैं, पैसे नहीं हैं।
फिर काफी देर तक वह उसे उलझन में रहता और समय के साथ इन्हीं उलझनों में उसे अपना आप बोझ लगने लगा वह आसमान में छेद ढूंढने लगा था। कि कहीं दूर निकल जाएं जहां हर चीज पैसे से ना आती हो चाहे उस उसने अपनी इच्छाओं को दबा लिया था लेकिन मन के एक कोने में एक परी महल बना रहा था जो हर अभाव से परे था और उसे मानसिक सुकून दे रहा था असुंदरता का यहां कोई नामोनिशान नहीं था हर चीज सुंदर पवित्र भय रहित मासूम बच्चे की हंसी की तरह जिसने अभी पैसे की चमक नहीं देखी थी।
रात का आसमानी चेहरा कुछ-कुछ लाल होने लगा था उसे लगा जैसे आसमान उस पर उस के सपनों पर हंस रहा हो कितने बड़े-बड़े सपने देखता था पलों में अमीर हो जाने के फिर वह इतने करोड़ का बंगला लेगा देश-विदेश में घूमेगा अच्छे-अच्छे महंगे कपड़े डालेगा सैकड़ों लोग उसके आगे पीछे घूमेंगे लेकिन यह सारे तो मात्र उसके दिल में छिपे उसकी इच्छाओं के अधूरे चित्रों से ज्यादा कुछ नहीं था।
इसी भटकन में इन्जीनियर बना। सोचता था पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा। “हां मां भी तो यही कहती थी–“- तुम सब पढ़ लिख जाओ यही मेरी दौलत है। इसलिए वह भी सोचता था पढ़ लिखकर वह बहुत बड़ा आदमी बनेगा फिर पैसे की कोई कमी नहीं होगी फिर उसे बार-बार नहीं सुनना पड़ेगा पैसे नहीं हैं। अगले हफ्ते अगले महीने पास होने पर वगैरा-वगैरा इसलिए हमेशा उसे नौकरी की तलाश और कहीं अच्छी नौकरी लग जाने के सपने आते रहते थे लेकिन हकीकत में छलनी धारा और कांटो के सिवा उसके हिस्से में कुछ और आया भी तो वह भी उससे खफा- खफा रहा।
आसमान धीरे-धीरे साफ हो रहा था सुबह होने में थोड़ी देर ही बाकी लगती थी आसमान में एकाध तारे ही बाकी थे। एक दो तीन चार पांच छ: तभी एक चमकते तारे पर उसकी नजर पड़ी उसकी आंखें उसकी चमक से फैल गई।
ठीक वैसे जब उसे पन्द्रह सौ की नौकरी मिली थी तो यह सुनकर उसे कितना सुकून मिला था 15 सौ ज्यादा कुछ नहीं लेकिन इतने संघर्ष और मिनटों के बाद लगता था सारी दुनिया 15 सौ रुपए में खरीद लेगा। सच वह भी जानता था 15 सौ रुपए में राशन का बिल बिजली का बिल टेलीफोन दूध का बिल सब्जी भाई बहनों की ऊंची पढ़ाई की फीस दे पाएगा।
इन बिलों के आगे 15 सौ रुपए महज शून्य से प्रतीत होते हैं लेकिन फिर भी ना जाने क्यों उसे एक संतुष्टि थी मानो बचपन में दिल में बैठे उस बोझ का कुछ अंश तो हल्का हुआ एक स्वाभिमान जागा था हां अब मैं भी अपने पैरों पर खड़ा हूं उसे याद है। पढ़ाई के बाद खाली रहने पर उसे और उसकी मां को पापा की कितनी बातें सुननी पड़ती थी। वह चुपचाप सुनकर बस रोती थी और वह रात को चुपचाप अंधेरे में मां की सोच खुद को कोसते हुए आंसू बहाता।
इसी घुटन के चलते वह जल्द से जल्द नौकरी करना चाहता था कभी-कभी सोचता क्यों ना घर से भाग जाएं, लेकिन इतना सोचते जब मां का ध्यान आता तो वह इरादा भूल जाता और सोचता नौकरी मिलने पर सब ठीक हो जाएगा।
आसमान पर हल्की हल्की रोशनी आ रही थी। सुबह होने में अब थोड़ी देर ही बाकी रह गई लगती थी। वह सारी रात सोया नहीं सुबह उठना भी जल्दी है इसी उधेड़बुन में उसने आंखें बंद कर ली की अभी रात ही है सुबह होने में अभी समय है और इसी बीच उसे नींद आ गई। बनी… बनी… बनी… आवाज़ सुनते ही। वह हड़बड़ाकर उठ सहसा उसे एहसास हुआ पापा उसे बुला रहे हैं आसमान के सारे तारे साफ थे सुबह हो गई उसने मन में सोचा चारपाई से उठते हुए उसने सुना पापा मां से कह रहे थे किसी काम के नहीं आज 2 साल हो गए पेंशन के लिए भटकते हुए दफ्तरों के चक्कर काटते हुए रिश्वत और पहुंचकर बिना कोई काम नहीं होता पता नहीं मिलती भी है या नहीं।
मां ने निराश चेहरे से हां में हां भरी लगता है पेंशन तो मरकर ही लगेगी (पापा ने खीज भरे लहजे में कहा) सुबह-सुबह ऐसे क्या बोलते हो मां का स्वर अनसुना कर वह बाथरूम में चला गया महीनों से चली आ रही भटकन में किसी रास्ते की तलाश के लिए अपने को नए दिन के लिए तैयार करने को वक्त को पकड़ने के लिए जो उससे बहुत तेज भाग आया था ।
— प्रीति शर्मा “असीम”

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- aditichinu80@gmail.com