गीतिका/ग़ज़ल

पार्थिव शहीद का

आया पार्थिव शहीद का,दरो-दीवार खिड़कियाँ रोईं,
सगे,संबधी,दोस्त,माँ,बहन,पत्नी और बेटियाँ रोईं।
वतन पे मिटने वाले अपने लाल पर गर्वित थे सभी
किंतु गले तक भर-भर के दर्द भरी सिसकियाँ रोईं।
फेरे लेकर खाईं कस्में जीवन भर साथ निभाने की
पत्नी की हथेली में अब अरमानों की मेहंदियाँ रोईं।
होली,दिवाली,करवाचौथ सब हो गया है सूना-सूना
सिंदूर,मंगलसूत्र,पायल संग सुहागन की बिछियाँ रोईं।
नेस्तनाबूत हो गया परिवारजनों का सपना’निर्मल’
नाजुक कलाईयों से उतरती हुई रंगीन चूड़ियाँ रोईं।
— आशीष तिवारी निर्मल

*आशीष तिवारी निर्मल

व्यंग्यकार लालगाँव,रीवा,म.प्र. 9399394911 8602929616