लघुकथा

सहारा

माँ, आज पंचतन्त्र में विलीन हो गई थी।वह एक नई यात्रा पर निकल चुकी थी।उस यात्रा पर हर व्यक्ति अकेले ही तो जाता हैं।माँ भी चली गई थी।हमारा सम्बन्ध तो इस लोक तक ही रहता हैं।जब माँ थी,तो मैं हर छोटो-बड़ी बात के लिए उनके पास बैठ जाता था।उनका स्नेह भरा स्पर्श मेरी हर समस्या का हल तुरन्त कर देता था।उनका स्पर्श किसी आशीर्वाद से कम नहीं था मेरे लिए।पर अब मेरा क्या होगा,सोचने मात्र से ही मेरे पूरे शरीर में सिरहन सी दौड़ पड़ती है?मैं निराशा के समुन्द्र में गोते खानें लग जाता हूँ।माँ के आशीर्वाद से मेरे पास सबकुछ है।अच्छा कारोबार,बंगला,बैंक-बैलेंस और नौकर-चक्कर।पर माँ का सहारा नहीं हैं।जब भी मुझें अपने कारोबार में किसी तरह की दिक्कत आती थी।तब माँ का सकारात्मक रवैया मुझमें नई ऊर्जा भर देता था। बस एक ही शिक्षा देती थी।बेटा कभी किसी का दिल मत दुखाना।आज फिर मुझें अपने कारोबार में दिक्कत आ रही है।माँ का सहारा चाहिए । माँ तो हमेशा के लिए अंतहीन यात्रा पर जा चुकी है।सामने लटक रही माँ की तस्वीर मुझें निहार रही थी,जैसे कह ही हो निराश नहीं होना,बेटा।मैं आज भी तुम्हारे साथ खड़ी हूँ तुम्हारा सहारा बन कर।इस विचार से आँखे नम हो गई।मन ही मन सोच रहा था।माँ का सहारा तो हमेशा मेरे साथ हैं।उनके शब्द,उनकी सलाह और उनकी यादें।मैं उन्हीं का अंश हूँ।मैं नए उत्साह के साथ खड़ा हुआ।माँ भी मेरे साथ खड़ी हुई, जैसे वो अक्सर करती थी,मेरा सहारा बनकर।

राकेश कुमार तगाला

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