लघुकथा

अंतरात्मा

संतोष,कोई काम तुम ठीक से नहीं करती हो,मैं तुम्हें समझा-समझा कर थक गई हूँ।आखिर तुम चाहती क्या हो?कब तुम मेरे अनुसार काम करोगी?सुलेखा लगातार बहूँ पर शब्दों के बाण छोड़ रही थीं।पर उसने कभी पलट कर जवाब नहीं दिया।
सुलेखा का व्यवहार ऐसा ही था।उसकी बहूँ ने अच्छी तरह भाँप लिया था।प्रतिकार का मतलब था।उन्हें और ठेस पहुँचना,जो वह कभी नहीं करना चाहती थी।सुलेखा चाहती थी कि वह कुछ गलत कदम उठा दे,ताकि वह उसे घर से बाहर का रास्ता दिखा सके।जैसे उसकी सास ने किया था।
संतोष चुपचाप पीड़ा सह रही थीं।घर मे किसी चीज की कमी नहीं थी।बस सास का कटु व्यवहार ही उसके हृदय को छलनी कर रख देता था।
सुलेखा की सहेली उसके व्यवहार से परिचित थी।वह बहूँ से बहुत सहानुभूति भी रखती थी।बेटी,तुम अपनी सास का विरोध क्यों नहीं करती?कब तक सहन करती रहोगी?वह बहुत धीमे स्वर में बोल रही थीं कि कहीं चाय बनाती सुलेखा ना सुन ले? पर सुलेखा के कान वहीं थे।चाची में अपनी सास का विरोध कभी नहीं कर सकती।वह दिल की बहुत अच्छी है।सुलेखा बहूँ की बात सुनकर हैरान रह गई।उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था।
वह रात भर करवटें बदलती रही बिस्तर पर।एक तरफ उसके अतीत का कड़वा अनुभव था।दूसरी तरफ उसका वर्तमान।
उसकी अंतरात्मा की आवाज जो उसे कचोट रही थी।
उसने सुबह उठते ही बहूँ को अपने पास बिठाया,उसे प्यार से स्पर्श किया।आज संतोष को सास की आँखों मे प्यार का सागर उमड़ता दिख रहा था।वह माँ जी कहकर उनसे लिपट गई।सुलेखा ने बहूँ को अपनी बाहों में भर लिया।काश वह पहले अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन लेती।माँ जी क्या सोच रही हो,वो अंतरात्मा की आवाज?क्या?
राकेश कुमार तगाला

राकेश कुमार तगाला

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