कविता

समाधि

पलकों को बंद कर
जब मैंने झाँका अपने अंदर
शांत ह्रदय में प्रकाश की
एक लौ नज़र आई
चमक रही थी एक चाँदनी
चहुँ ओर
और गहराई में जब गया मन
चारों और अथाह जल ही जल
जल और क्षितिज का मिलन
होते पाया
छिटक रही थी प्रकृति की
अनुपम छटा
कहीं नील वर्ण
कहीं केसरिया
चारों और शांति ही शांति
पिन ड्रॉप साइलेंस
मन न करता इससे
आने को बाहर
आंखे बन्द कर
चुपचाप बैठा रहूं यूंही
डूब कर इसमें हो रही
अनुभूति आंनद की
जैसे लग गई हो
समाधि
एक ऐसा क्षण
जिससे बाहर आने की
नहीं थी कोई चाह
*ब्रजेश*

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020