कविता

अंधेरे उजाले

जो यह काली घटाएं
देख रहे हैं न आप
इसके उस पार
रोशनी की किरण भी है
कितना भी अंधेरा हो जाए
उजाले को ज्यादा देर
रोक नहीं सकता
अंधेरा छटते ही
देदीप्यमान हो जाएगा
वो दुबारा
यह अंधेरा स्थाई नहीं है
स्थाई तो उजाला ही है
क्या देखा है कभी
रात के बाद
सूरज न निकला हो
हर रात के बाद
उसी शिद्दत से
सूरज चमकता है
हर पतझड़ के बाद
बहार आती है
और उसे आना ही है
कहां तक ये मन को अंधेरे छलेंगे
उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगें
कभी सुख कभी दुःख यही जिंदगी है
ये पतझड़ का मौसम
घड़ी दो घड़ी है
*ब्रजेश*

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020