गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ज़िन्दगी इतनी उदास क्यूं है
भटकती हुई-सी आस क्यूं है ।

सब कुछ है दिखावटी,नकली,
खोखला इस कदर हास क्यूं है ।

दूर-दूर तक है फैली खामोशी,
ग़मगीन हर दिवस,मास क्यूं है ।

शंका के बादल छाये गगन पर,
सिसकता यहां विश्वास क्यूं है ।

कितने हैं ज़िन्दा,कहना कठिन,
चलती-फिरती हर लाश क्यूं है ।

दोरंगी हो गई हैं अब हवाएं,
सच में फरेब का वास क्यूं है ।

रोटी की कमी नहीं है तो भी,
खा रहा आदमी घास क्यूं है ।

रहते ज़मीं,पर उड़ते ऊपर ‘नील’,
सबको भाता आकाश क्यूं है।

— डॉ. नीलम खरे

डॉ. नीलम खरे

डॉ.नीलम खरे आज़ाद वार्ड, मंडला (म.प्र) -481661