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“गुरु के सानिध्य में आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ करने का दिवस है गुरु पूर्णिमा”

“गुरु के सानिध्य में आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ करने का दिवस है गुरु पूर्णिमा”-

आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक संस्कृति है। अध्यात्म का अर्थ है आत्मा का अध्ययन औऱ संस्कृति का अर्थ है, परिष्कार , शुद्धिकरण। स्वयं को परिष्कृत करना। अर्थात आत्मा पर जमे हुए सांसारिक मैल को अंतर्मन की आंखों से देखकर उसे खुरच कर , साफ करना तदुपरान्त आत्मा को उसके मूल स्वरूप में लाना आध्यात्मिक संस्कृति है। क्योंकि जब तक आत्मा पर सांसारिक काम, क्रोध , मद, लोभ, अहम, ईर्ष्या, वासना का मैल एकत्रित रहेगा तब तक आत्मा अपने मूल स्रोत परमात्मा से आनंद का प्रकाश प्राप्त करने में असमर्थ ही रहेगी।
यह मैल पूर्वजन्मों के विचारों , परिवार-समाज के विचारों द्वारा मन पर एकत्रित होकर जब प्रबल होते हैं तब आत्मा पर ग्रहण लगा लेते हैं।
प्रश्न यह है कि इस मैल को खुरचा कैसे जाये? कैसे घिसा जाये, कैसे हटाया जाये?? इसके लिये हमारे शास्त्रों में अन्यान्य प्रयोग बताये गये हैं लेकिन यह प्रयोग बहुत कठिन,जटिल और हठ योग हैं। जब कोई कार्य कठिन हो जाता है, तब उसे सुलझाने के लिए किसी जानकार , विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है, जो बड़ी ही सरलता से अपने अनुभवों से उस समस्या का समाधान कर देता है। जो बिना किसी बाधा के हमारी समस्या को सरलता से सुलझा दे वह गुरु है। प्रेम के स्पर्श और ज्ञान के प्रकाश से जो आत्मा को परमात्मा का तादात्म्य स्थापित करवा दे, वह सद्गुरु है। गुरु का अर्थ है गु+रु , गु माने अंधकार, रु माने प्रकाश। जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाये वह गुरु है। गुरु वह ज्ञानी महापुरुष है जो साधारण से साधारण मानव को देवता बना देता है। कबीर लिखते हैं
बलिहारी गुर आपणै, द्यौं हाड़ी के बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार ।।
गुरु के कृपा- भाजन के लिए पहली शर्त है गुरु के प्रति पूर्ण निष्ठा, पूर्ण समर्पण। गुरु के किसी भी कृत्य पर विकल्प रहित संकल्प होना ही शिष्य होने की प्रथम परीक्षा है, शिष्य के मन में विकल्प औऱ संशय का आना ही प्रथम असफलता है। इसलिये गुरु बनाने से पहले तय करलें कि दीक्षा किस गुरु से लेना है।
गुरु वह सामर्थ्य है जो अपनी साधना की नौका में बिठाकर अपने शिष्य को संसार सागर से पार कर देता है। गुरु की महिमा अनन्त है , जिह्वा में इतनी सामर्थ्य नहीं कि गुरु के उपकारों का बखान कर सके। ऐसी कोई दक्षिणा नहीं जो गुरु के ज्ञान के फलस्वरूप देने योग्य हो, कलम में इतनी मसि नहीं कि गुरु की महिमा का वर्णन लिखा जा सके।
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत-दिखावणहार ॥
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान ।।

नाथ साहित्य और सिद्ध साहित्य में गुरु को सर्वोपरि माना गया। नाथ पंथ के अनुयायियों ने पिंड में ब्रह्मांड मानकर अपने अंदर ही ईश्वर प्राप्ति का प्रयत्न किया। साथ ही वेद शास्त्र, उपनिषद आदि धर्म ग्रंथों, व्रत , तीर्थ उपासनाओं का विरोध किया । वज्रयान के समान नाद , बिंदु, आसन, मुद्रा ,प्राणायाम आदि को इन्होंने माना। जाति-पांति ,छुआ-छूत को उन्होंने अस्वीकार किया । उनके यहां कोई शास्त्र ज्ञान नहीं था किंतु अपने गुरु की महिमा का गुणगान सर्वत्र किया। हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में सगुण निर्गुण दोनों ही शाखाओं में गुरु को भक्त कवियों ने विशेष महत्व दिया है। कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष। सूफी काव्य में जायसी ने तोता को गुरु के प्रतीक के रूप में सिद्ध किया कि जीव बिना गुरु के परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता।
गुरु के आशीष प्राप्त होते ही हमारा अल्पज्ञान, बृहत् होने लगता है, हमारी विचारधारा संकीर्णता की बेड़ियों के बंधन तोड़कर व्यापक हो जाती है। गुरु के प्रेम जल को पीकर भीतर की बंजर माटी से ज्ञान के अंकुरण फूटने लगते हैं। तुलसी बाबा अपने रामचरितमानस में लिखते हैं-
बंदउँ गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज, जासु बचन रबि कर निकर।
गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही कोई भगवान शंकर या ब्रह्मा जी के समान ही क्यों न हो किन्तु गुरू के बिना भवसागर नहीं तर सकता। भगवान राम औऱ कृष्ण भी तब तक ज्ञान प्राप्त नहीं करते जब तक गुरु के आश्रय में नहीं आ जाते-
गुरु गृह पढ़न गए रघुराई। अलप काल विद्या सब पाई

यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि आज हम अज्ञानता के कारण गुरु और शिक्षक में कोई भेद नहीं करते। दोनों को एक ही अर्थ में मान लेते हैं, भावना के आधार पर तो ठीक है किंतु गुरु और शिक्षक में आधारभूत अंतर है।
शिक्षक वह है जिसने हमें वह दिया है जो उसने सीखा है और संसार में जीने के लिए जीविकोपार्जन के लिए हमें पात्र बनाया है, हमारी बेहतर जीवन शैली का उपाय बताया। संसार की समस्याओं से कैसे संघर्ष करते हुए अपना उत्तरोत्तर विकास करना है। अर्थात पुस्तक औऱ अपने अनुभवों का वह ज्ञान जो उसने पढ़कर और सीखकर हमारे भीतर उड़ेला है, वह शिक्षक है । जबकि गुरु वह है जो परिवार ने, शिक्षक ने, समाज ने, परंपराओं ने , धर्म, जाति सम्प्रदाय ने आपको जो दिया है उसे खाली करवा दे, गुरु इसे अपच मानता है, वो इसका वमन कराता है या शमन कर देता है। अगर कम्यूटर की भाषा में कहें तो हमारा स्केनिंग करके फॉर्मेट मारना। हमारे मन पर जो मैल है , जो विचारों की गंदगी है उसे साफ करके, निर्मल करता है वह सद्गुरु है, जो परमात्मा के प्रकाश को हमारी आत्मा पर आने के सभी रास्ते खोल दे, वह सद्गुरु है।
शिष्य जब गुरु के ज्ञान के मानसरोवर में उतरता है तब वह कमल बन जाता है जो हर स्थिति में संसार के जल से स्वयं को ऊपर ही रखता है । सच्चे सद्गुरु का ज्ञान जब मिलता है तब आत्माराम दुबे के घर से फैंका हुआ बच्चा महाकवि तुलसीदास हो जाता है, जुलाहे की परवरिश से एक अछूत सन्त कबीर हो जाता है। शिष्य जब गुरु के प्रति एकनिष्ठ हो जाता है तब महान धनुर्धारी अर्जुन हो जाता है। प्रेम के गीत गाकर घर से तिरष्कृत एक नारी मीरा हो जाती है, गुरु की आज्ञा को ईश्वरीय वाणी मानकर एक स्त्री शबरी हो जाती है।
अंततः सांसारिक प्रलोभन की चाह में गुरु की खोज व्यर्थ होगी। गुरु पूर्णिमा पर्व है सासांरिक बन्धनों से मुक्त होकर स्वतन्त्र होने का, गुरु की शरण में जाकर आध्यत्मिक यात्रा आरम्भ करने का। तो आओ चलें गुरु को शरण में, गुरु के चरण में
गुरूर ब्रह्मा गुरूर विष्णु,गुरु देवो महेश्वरा,
गुरु साक्षात परब्रह्म,तस्मै श्री गुरुवे नमः

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा
dr.svsharma@gmail.com

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

विभागाध्यक्ष, हिंदी अम्बाह स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय, अम्बाह जिला मुरैना (मध्यप्रदेश) 476111 मोबाइल- 9826335430 ईमेल-dr.svsharma@gmail.com