लघुकथा

काँटों वाला पेड़

गाँव की सीमा पर सरकारी जमीन पर उग आए उस विशाल बबूल के पेड़ से पूरा गाँव त्रस्त था । सड़क के किनारे शान से खड़ा वह पेड़ सड़क पर अक्सर काँटों की बरसात कर दिया करता था और बेचारे ग्रामीणों के पैर में धँसे काँटों से उनका लहूलुहान पैर देखकर वह खुशी से लहलहा उठता । अक्सर ग्रामीणों की साइकिलें भी वहाँ से गुजरते हुए पंचर हो जातीं और उनका आक्रोश देखकर वह दुष्ट पेड़ हवाओं की धुन पर और खिलखिला पड़ता ।

गाँव वालों ने इसकी शिकायत मुखिया से की ! मुखिया ने उनकी शिकायत आगे बढ़ाने का आश्वासन दिया और उन्हें वापस भेज दिया । शिकायत आगे पहुँची मण्डलाधिकारी के पास । उन्होंने छानबीन में पाया कि वह पेड़ तो बीस साल पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री ने वृक्षारोपण कार्यक्रम के तहत स्वयं अपने हाथों से लगवाया था । वस्तुस्थिति समझते हुए मंडलाधिकारी ने यह समस्या जिलाधीश के विचारार्थ भेज दिया ।

राज्य के मुख्य सचिव के जरिये मुख्यमंत्री से जिलाधीश की बात हुई । वर्तमान मुख्यमंत्री ने वन एवं पर्यारण मंत्रालय के नियमों का हवाला देकर वह फाइल पर्यावरण मंत्री को सौंप दिया और उन्हें सख्त ताकीद दी कि ‘यह पेड़ किसी भी हाल में कटना नहीं चाहिए क्योंकि इसे लगाने और पोषित करने के पीछे जरूर कोई वजह रही होगी । लेकिन जनता के भारी विरोध को नजरअंदाज भी अधिक देर तक नहीं कर सकते ,सो कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा । ‘

मंत्री जी ने पूछा ,” लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा है कि जब वृक्षारोपण करना ही था तो कोई फलदार वृक्ष की बजाय यह काँटों वाला पेड़ ही क्यों लगाया हमारी पहले की सरकार ने ? ”

मुख्यमंत्री जी रहस्यमय स्वर में धीमे से बोले, “तुम अभी राजनीति में नए हो ! तुम क्या जानो राजनीति के दाँवपेंच ? हमारे साथ जुड़े हो शीघ्र ही जान जाओगे !

जनता की हर मनोकामना पूरी हो गई तो हमें कौन पूछेगा ? यही तो हमारा काम है । अब जैसे ही तुम इस पेड़ के लिए कुछ करोगे जनता पूरी तरह से हमारे साथ हो जाएगी । समझे कुछ ? अब जाओ कुछ काम करो और जो कहा है उसका ध्यान रखना। पेड़ जड़ से उखड़ना नहीं चाहिए । ”

” आप बेफिक्र रहिए श्रीमान ! इतनी राजनीति तो हमने भी सीख ही ली है । ” मंत्री ने हाथ जोड़ते हुए खीसें निपोरी थीं ।

कुछ दिन बाद गाँव की मुख्य सड़क से गुजरते हुए एक भारी मशीन उस पेड़ से टकरा गई । उस पेड़ की सड़क पर आनेवाली शाखा टूट कर धराशायी हो गई और सड़क पर छाया हुआ पूरा हिस्सा अब खुला खुला सा हो गया था । यह देखकर गाँव वाले खुशी से झूम उठे , जश्न मनाने लगे !  कहना जरूरी नहीं कि जश्न में वो भी शामिल हो गए थे जिन्होंने उस पेड़ को पाला पोसा था ! किसीका ध्यान इस तरफ कत्तई नहीं था कि ऐसी कई शाखाओं को पैदा करने की क्षमता रखने वाला वह पेड़ और उसे पोषित करनेवाला तंत्र अब सुरक्षित था !

कुछ गाँववाले अभी तक कयास ही लगा रहे थे कि वह भारी मशीन किसकी थी और वहाँ गाँव में क्यों आई थी ? जवाब किसी के पास नहीं था ।

— राजकुमार कांदु

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।