कविता

आत्मघात

अजब रस्म है दुनिया की,
जीते जी दुत्कारे जाते हैं।
लेकिन बाद मरने के,
कारण खंगाले जाते हैं।
इतनी ही परवाह अगर थी,
तो जीने क्यों उसको दिया नहीं?
जी लेता वह पाकर अपनापन,
जख्मों को क्यों उसके सिया नहीं?
उसके जाने के बाद कहो,
क्यों अतिशय हंगामा करते हो?
क्या,क्यों और कैसे हुआ,
इन प्रश्नों के जाल में फंसते हो।
जीवन कठिन लगा होगा,
मरना सरल लगा होगा।
तभी तो खुद ही आघात किया,
जीवन को अपने समाप्त किया।
सोचो कितना मुशिल वह पल होगा,
जब मृत्यु का आलिंगन किया होगा।
यूं ही तो कोई मर जाता नहीं,
मौत को गले लगाता नहीं।
अंतर्मन से कितना विकल होगा,
अपनों की याद से विहल होगा।
वो घड़ियां कितनी कठिन होंगी,
जब उसने ये निर्णय लिया होगा।
माना आत्मघात का निर्णय,
किसी तरह भी सही नहीं,
लेकिन अब हंगामे से क्या होगा
जब जीते जी उसकी सुनी नहीं।

— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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